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________________ 2-27 मुद्रण और लिपि कला को प्रारम्भ करने में ऋषभदेव सरीखे जैन जैनियों के सूत्र एवं अन्य प्राचीन काल में हाथ प्रमुख थे और दोनों शासन कलाए उन्होंने प्रचलित से लिखे जाते थे। बड़े-बड़े लिपिक इस कार्य को की, जो समय-समय बढ़ती घटती हुई आज भी करते थे। इन्हें प्रचुर धन देकर उत्साहित किया विद्यमान हैं। जाता था। अाज भी जैनियों के धर्म ग्रन्थ एवं धातु, काष्ठ एवं प्रस्तर कला (शिल्पकला) पुस्तकें अत्यधिक मात्रा में छपती हैं और लिखाई जाती हैं। इससे दोनों कलामों को प्रोत्साहन इनका सामान्य वर्णन मूर्तिकला में आ चुवा मिलता है। है और चित्रकारी में भी । लेकिन धातु प्रस्तर व काष्ठ की मूर्तियां तथा धातु प्रस्तर व काष्ठ पर शासनकला चित्र बनाने के अलावा स्वयं को सुन्दर ढंग से धर्मशासन और राज्य शासन में. जैनियों ने बनाने का शिल्प जो जैनियों ने काम में लिया है बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । जैनियों के वह आज भी उसके भवनो और मंदिरों में विद्यमान जितने भी तीर्थकर हुए हैं, वे सभी प्रायः राज्य है। सोना, चांदी, पीतल, लोहा, कांस्य या सभी शासन चलाने वालो में से. थे। अधिकांश आचार्य का सम्मिश्रण, चन्दन, आम, सागवान आदि हर एव धर्म गुरू भी किसी न किसी राजवंश से प्रकार की लकड़ी तथा मकराणा व सभी अन्य सबधित थे, अतः दोनों शासनों की कलाप्रो में तरह के पत्थरों पर जैसा शिल्प कला का प्रदशन निष्णात थे। धर्मशासन में चतुर्विध सघ की जैनियों ने किया है वैसा शायद ही अन्य धर्मावस्थापना कर शासन व्यवस्था जमाई जा. प्रभा तक लम्बियों ने किया हो। आबू और अन्य जगहों के चल रही है। सघ में साधु, साध्वी, श्रावक, श्रावि- मन्दिरो में करोड़ो रुपयों की खुदाई के काम कराये काए अपने अपने स्थान पर अपन अपने नियमों स हैं। इस तरह जनों ने काष्ठों एवं धातुओं की प्राबद्ध होकर धम प्रचार एवं धर्म पालन में रत हैं। मूर्तियों से लगाकर वर्तनादि सभी व्यवहार की इतनी सुदर व्यवस्थाएं दी हैं कि जैन शासन वस्तुओं को कला एवं मीनाकारी से सुसज्जित किया हजारों वर्ष के बाद भी भली भांति चल रहा है। है। जैनियों ने हीरा और पन्ना तक की मूर्तियां तीर्थकर होते तब तीर्थंकर, गणधर, प्राचार्य, बनाकर इस कला को चमकाया है। व्यापारी कोम उपाध्याय एवं साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका होने और इन सबका व्यापार इनके हाथों में होने रूप में व्यवस्थित शासन चलता था और उसके बाद से जैन लोग हर तरह के देव मन्दिरों और गृह प्राचार्य, उपाध्याय एवं अन्य अंग बराबर चल रहे देवियों के प्राभूषण भी बड़े उत्तम ढंग और नित हैं । धर्मशासन तो इन्हीं के हाथों में है। शासन नये आकर्षक ढंग से बनाने के माहिर हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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