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________________ 2-26 साधु र यतियों एवं भट्टारकों ने बड़ी महत्व - पूर्ण भूमिका अदा की है । आप देखेंगे कि हस्तलिखित ग्रन्थों में जगह-जगह चित्रों का उपयोग किया गया है । लिपि की सुन्दरता और सजावट में इससे चार चांद लग गये हैं । भित्ति चित्रों की श्रमिटता एक महत्वपूर्ण कार्य है जो बड़ी बड़ी गुफाओं और मन्दिरों में सैंकड़ों वर्षों से अभी भी विद्यमान है । जैनियों ने चित्रकला को धर्म स्थानों पर बहुत चमकाया है और धर्म ग्रन्थों में भी तप वर्णन, रथ, कमल श्रादि चित्रों द्वारा तथा काव्य रचना भी इसी तरह चित्रों में प्रदर्शित की हैं । यहां तक कि लक्ष्या, लोक एवं अन्य तत्व-विचारप्रसंगों को भी चित्रों में अंकित कर साधारण जनता तक पहुंचने की कोशिश की गई है । भारत में सबसे अधिक चित्रकला का प्रचार-प्रसार और रक्षरण जैनियों ने किया और आज भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने भव्य मन्दिरों, भवनों और धर्म स्थानों को सजाने की यही उत्तम कला अपनाई हुई है। पट, काष्ठ, भित्ति और कागज के चित्र तो प्रत्येक धम स्थानक में सदा वर्तमान थे, हैं और रहेंगे | निवास स्थानों में भी इनका वर्तन अत्यधिक है । रेत के चित्रों का अल्प समय के लिए मार्ग दर्शन के लिए साधु, यात्री गन्तव्य स्थान को बताने के लिये प्रयोग करते थे और बड़ी बड़ी चट्टानों पर छंगी से बनाये हुए चित्र प्राज भी प्राचीन समय के सुरक्षित हैं तथा भवतों में आज भी पत्थरों पर चित्रों की पच्चीकारी का तथा कपड़ों पर भी पच्चीकारी व कलाबूती का कार्य बराबर व्यवहार में आ रहा है, जैनीलोग का धर्मकार्य का अधिकांश पैसा मन्दिर निर्माण एवं चित्रकारी में ही खर्च होता है । उन्होंने चित्रकला के प्रचार एवं प्रसार में बड़ा सहयोग दिया और दे रहे हैं । मूर्ति एवं निर्माण कला जैनियों में प्राचीन कला से धनिकों की अधिकता होने एवं शासन हाथ में होने से अच्छे-अच्छे Jain Education International प्रासाद, मंदिर, बावड़ियाँ, धर्मशालाएं, औषध - शालाए', पौषधशालाएं, श्रौर विद्याशालाएं बनाई हैं, जो बहुत से स्थानों पर अभी तक भी सुरक्षित हैं । जैनियों में राजा, दीवान तथा सेठ अधिक हुए हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में अपने धर्म के प्रचार प्रसार एव मानव हित के लिए भवन बनाये और बना रहे हैं । मन्दिर, धर्मशालाएं, स्थानक, पौषधशालाए ं, विद्यालय, श्रोषधालय, अस्पताल आदि अभी भी प्रचुर मात्रा में बनाते जा रहे हैं। मूर्तिकला का उदूभव एवं प्रचार-प्रसार भी जैनियों द्वारा ही अधिक हुआ है, ऐसा इतिहासज्ञ मानते हैं । मूर्तिकला के साथ स्थापत्य कला एवं शिल्प कला का प्रचारप्रसार जैनियों द्वारा ही किया गया है । ग्रन्थों व सूत्रों को सुरक्षित रखने लिए मन्दिरों में सारे के सारे सूत्र खुदवा दिये हैं । अच्छे अच्छे वाक्य तो हर मन्दिर में लिखे या खुदे मिलेंगे प्रशस्ति प्रत्येक भवन और मन्दिर में वर्तमान में भी खुदी हुई है । जैनियों ने मूर्तिकला में सौन्दर्य एवं आकर्षण पैदा करने में अत्यधिक धन व्यय किया है और कर रहे हैं। सभी तीर्थंकरों, शासन देवियों एवं अन्य तरह के मान्य देवों की मूर्तियां जैन लोग निर्मित कराते हैं । युद्ध एवं वक्तृत्व कला जैनियो ने प्राचीन काल में बड़े-बड़े युद्ध किये थे, फलतः वे युद्ध कला में बड़े होशियार थे। चूंकि वे शासन करने वाले राजा या अमात्य पद पर शोभित होते थे । जैनी साधुत्रों ने अपने धर्म प्रचार हित वक्तव्य कला को प्राचीन काल से अपनाया और आज भी अपनाये हुए हैं। इनके भाषण सुनने के लिये दूसरे मजहब के लोग भी अच्छी तादाद में एकत्रित होते हैं । वक्तृत्व कला ने वाद-विवाद में भी जैनियों को सदा विजय दिलाई है । साधु एवं साध्वियां इस कार्य में बड़ी विचक्षरण होती हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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