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________________ 2-19 प्राजीवक सम्प्रदाय के नेता मंखलिपुत्र गोशाल और भी अनेक धर्म निहित हैं। उसमें अविवक्षित अपना अकर्मण्यतावाद फैलाने में दिन-रात एक कर गुणधर्मों के अस्तित्व की रक्षा 'स्यात्' शब्द ही रहे थे। इनके अतिरिक्त, संजयबेलट्ठिपुत्र जन-मन करता है । संक्षेपतः, अनेकान्तवाद जहां चित्त में को अपने संशयवाद से प्रभावित करने के लिए अलग समता, मध्यस्थता, वीतरागता और निष्पक्षता की ही एडी चोटी का पसीना एक कर रहे थे। एक सृष्टि करता है वहां स्याद्बाद वाणी में निर्दोषता, साथ तीन सिद्धान्तों की मस्तव्यस्तता के कारण लाने का पूर्ण अवसर प्रदान करता है। इसलिए, पदार्थ के रचनात्मक रूप का यथार्थ निर्णय नहीं यदि विचार और मन की शुद्धि के लिये अनेकान्तहो पा रहा था । वस्तुतः बिहार उस समय दार्शनिक वाद आवश्यक है, तो व्यवहार और वाणी की शुद्धि मतवादियों का अखाड़ा बना हप्रा था। भगवान के निमित्त स्याद्वाद अनिवार्य । महावीर के समकालीन तीन दार्शनिक और थे. अनेकान्त का अर्थ है---'अनेके अन्ताः घर्माः जिनका कार्यक्षेत्र बिहार ही था। इनमें प्रथम अजित सामान्य विशेषपर्यायगुणः यस्येति अनेकान्तः', केशकम्बली भौतिकवादी थे, दूसरे पूर्णकाश्यप मर्थात् परस्पर विरोधी अनेक गुण और पर्यायों का प्रक्रियावादी या नियतिवादी थे और तीसरे प्रक्र द्ध एकत्र समन्वय । अभिप्राय यह कि जहां जैनेतर कात्यायन का नाम पदार्थवादियों में पांक्तेय था। दर्शनों में वस्तु को केवल सत् या असत्, सामान्य या उक्त छहों दार्शनिकों ने वस्तु के एक धर्म को विशेष, नित्य या अनित्य, एक या अनेक, भिन्न या ही पूर्ण सत्य मान लिया था। बिहार की भूमि में अभिन्न माना गया है, वहां जैन दर्शन में अपेक्षाकृत पलने पनपने वाले इन ऐकान्तिक दर्शनों की परस्पर एक ही वस्तु में सत्-असत्, सामान्य-विशेष, नित्य भनित्य, एक-अनेक और भिन्न-भिन्न रूप विरोधी हिंसामूलक समन्वयहीनता एवं अव्यावहारिकता से धर्मों का समवाय माना गया है । जैनदृष्टि में चूंकि भगवान महावीर चिन्तित हो उठे थे। इसलिए, प्रत्येक वस्तु का निरूपण सात प्रकार से होता है, उन्होंने वस्तुओं में निहित अनेक धर्मों की ओर इसलिए इस वस्तु-निरूपण की प्रक्रिया को जैनसंकेत करने के निमित्त अपने दार्शनिक सिद्धान्तों दर्शनकारों ने 'सप्तभंगी' कहा है। बिहार की और विचारों की प्रतिष्ठा 'स्यादुवाद' या 'अनेकान्त. पावन स्थली में प्रचारित-प्रसारित यह सप्तभंगीवाद' के माध्यम से की। महावीर स्वामी ने 'उत्पनेइ सिद्धान्त विचारों में सामंजस्य उत्पन्न करने वाला वा विगमेइ वा धुवेई वा' इस मातृकात्रिवदी वाक्य है, साथ ही मन-प्राण को उदात और व्यापक बनाने में निरूपित उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त वाला भी। धर्मत्रयात्मक (अनेकधर्मात्मक) वस्तु के स्वरूप को स्थिर किया और इस धर्मत्रयात्मक वस्तू स्वरूप को बिहार को न केवल जैन तीर्थंकरों या गौतम बतलाने वाले सिद्धान्त को 'अनेकान्तवाद' या 'स्याद्- गणधर जैसे व्याख्यातानों को ही जन्म देने का श्रेय वाद' की संज्ञा दी। यह स्याद्वाद समग्र जैन दर्शन है, अपितु इसने अनेक ऐसे जैनाचार्यों को भी जन्म की रीढ़ है, जिसकी स्थापना का समस्त श्रेय बिहार दिया है, जिसकी व्य ख्याएं सारे विश्व में पढ़ी सुनी। को ही है। प्रसंग वश यहां ज्ञातव्य है कि स्याद्वाद' जाती हैं। बिहार के नियुक्ति-भाष्यकार आचार्य, समन्वयवाद या अपेक्षावाद का ही पर्याय है। भद्रबाहु को कौन नहीं जानता, जिन्होंने जनदर्शन के स्यावाद एक विशिष्ट भाषा पद्धति है। 'स्यात्' व्याख्याता के रूप में शाश्वती प्रतिष्ठा प्राप्त की है। शब्द सुनिश्चित रूप से बतलाता है कि वस्तु केवल इनका पाटलिपुत्र से घनिष्ठ और नेदिष्ठ सम्बन्ध एक धर्मा ही नहीं है, अपितु उसमें एक के अतिरिक्त है। इन्होंने प्राचारांगसूत्र, उतराध्ययनसूत्र, मावश्यक HEAnsatasailivraat Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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