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________________ 1-142 ही प्रकारों मैं कोई नवीनता नहीं है। जैन अनुमान के विवेचन से अपना पार्थक्य बताने के लिए प्रथ में थोड़ा सा भेद डाला गया है। इसी तरह प्रौर तथ्य भी मिल सकते हैं जो जैन न्याय की मौलिकता 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. को प्रकाश में ला सके, लेकिन वे सब प्रन्वेषल मांगते हैं । प्रन्वेषक इस दिशा में प्रयास करें तो संसार को नई देन दे सकते हैं । षड्दर्शन, श्लोक 20 : शेलम्ब गवल व्याल तमाल मलिन त्विषः । वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैवं प्रायः पयोमुचः ॥ वही, श्लोक 21 : कार्यात् कारणानुमानं यच्च तच्छेषवन्मतं । तथाविध नदी पूरान्मेघो वृष्टो पयरि । वही, श्लोक 22 : धनुयोगद्वार, पृ० 195 से किं तं प्रमाणे ? तिविहे पण्णत्ते तंज हा पुण्ववं सेववं दिट्ठ साहमवं । सू, 619 अनुयोगद्वार अनुमानाधिकार, पृ० 195, सू. 520 माया पुत्तं जहां निट्ठ जुवाणं पुणरागयं कई पच्चभिजाणेज्जा पुव्व लिगेरा केई || वही, पृ० 195 : से कि तं सेसवं तंजहा कज्जेरण, कारणेणं गुणेण । सू. 521 अनुयोगद्वार, पृ० 198 : जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुषिसा । सू. 528 वही, से जहां गामए केई पुरिसे कंचि परिसं बहूणं । पुरिसारणं मज्झे पुर्वादिहं पुरिसं वच्चामिज नेज्जा सू. 429 वही, : तस्स समासभो तिविहं गहरणं भवद, तंजहा - प्रतीय काल गहरणं पडुप्पटणकाल गहण भरणाय काल गहणं । सू. 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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