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________________ 1-134 के कारण वह शरीर में ही स्थित रहता है। सूखे चमड़े के समान उसके प्रदेशों का संकोचन प्रौर जल में तेल के समान उसके प्रदेशों का विस्तार हो जाया करता है । जैसे दीपक का प्रकाश एक बड़े कक्ष को प्रकाशित करता है, परन्तु एक छोटे सकोरे में भी सीमित हो जाता है, इसी प्रकार जीव की वृत्ति भी बड़े छोटे शरीरों में हो सकती है । यहाँ विरोधियों की ओर से यह प्राक्षे किया जा सकता है कि यदि जीव में संकोच तथा विकास होता है तो वह अनित्य होगा । इस प्रक्षेप का उत्तर देते हुए जनदर्शन में कहा गया है कि अनेकान्तवादी जैन की दृष्टि से इसमें कोई दोष नहीं है। जैनदर्शन तो यह स्वीकार करता ही है कि प्रदेश संहार' और 'प्रदेश विकास' की दृष्टि से जीव प्रनित्य है ही इस प्रकार जनदर्शन में दृष्टिकोण के भेद से प्रात्मा की नित्यता तथा अनित्यता दोनों स्वीकार की गई है । जीव अनन्त माने गये हैं जो समस्त विश्व में फैले हुये हैं । संक्षेप में जीव दो प्रकार के होते हैं(1) ससारी और (2) प्रसंसारी (मुक्त) | जो एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते हैं वे संसारी जीव है । संसारी जीव भी दो प्रकार के हैं— ( 1 ) संज्ञायुक्त (समनस्क) और (2) संज्ञः रहित (ग्रमनस्क) संज्ञा का अर्थ है - शिक्षा, क्रिया तथा बातचीत को समझना अथवा सद् असद् का विवेक। इस प्रकार की संज्ञा मनुष्य आदि में होती है अतः मनुष्य गन्धर्व आदि संज्ञायुक्त जीव कहलाते हैं । संज्ञारहित जीव भी दो प्रकार के होते हैं - ( 1 ) त्रस भोर (2) स्थावर । दो इन्द्रियों श्रर्थात् स्वर्शन तथा रसना वाले शंख श्रादि, तीन इन्द्रियों अर्थात् स्पर्शन, रसना और घ्राण वाले चींटी आदि; चार इन्द्रियों अर्थात् चक्षु सहित उक्त तीन इन्द्रियों वाले मच्छर आदि; और पांच इन्द्रियों अर्थात् श्रोत्र सहित उक्त चार इन्द्रियों वाले पशु श्रादि जीव 'स' के अन्तर्गत प्राते हैं । 'स्थावर' के अन्तर्गत वे जीव नाते हैं जिन्होंने 1 Jain Education International पृथिवी, जल, तेज और वायु को शरीर रूप में धारण किया है जैसे वृक्ष - लता प्रादि । ये 'स्थावर जीव' पांच प्रकार के होते हैं इन जीवों की केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है । इस प्रकार सभी जीवों को 9 वर्गों में रखा गया है । . संसारी जीव कर्म के कारण ही एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है; क्योंकि वह शुभ और अशुभ कर्मों का कर्ता भी है और उनके फल का भोक्ता भी है। जीवात्मा श्रौर कर्म का प्रनादि सम्बन्ध है । कर्म से ही जीवात्म का बन्ध होता है । प्राचार्य उमास्वाति का कथन है 'जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहरण कर लेता है, यही बन्ध है' 17 यहाँ कषाय का तात्पर्य क्रोध प्रादि मनोभाव है । कषाय शब्द का उल्लेख करके श्राचार्य ने बन्ध के सभी हेतुम को सूचित कर दिया है । आचार्य के अनुसार बन्ध के पाँच हेतु हैं - ( 1 ) मिथ्यादर्शन, (2) प्रबिरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और (5) योग 8 ये हेतु मिलकर बन्ध के निमित्त हुआ करते हैं । किन्तु कहीं-कहीं इनमें से किसी एक या दो को ही मुख्य रूप से बन्ध का कारण माना गया है 18 'मिथ्यादर्शन' का अर्थ है -- तत्व पर श्रद्धा न रखना या जैन तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट तत्वों में श्रद्धा न रखना। हिंसा आदि दोनों से विरति न होना तथा इन्द्रियों का संयम न करना 'अविरति' है । कुशल कार्यों के प्रति श्रादर न रखना तथा कर्त्तव्यों में सावधान न रहना 'प्रमाद' है । क्रोध, मान, माया और लोभ प्रादि 'कषाय' कहलाते हैं । मन, वचन और शरीर के द्वारा जीवात्मा के प्रदेशों में जो क्रिया होती है । उसे योग कहते हैं यही 'प्रास्रव' कहलाता है । इसके द्वारा कर्म पुद्गलों का जीवात्मा से सम्बन्ध होता है । इस प्रकार के 'मानव' से कर्म पुद्गल भाकर्षित होकर, जिस प्रकार पवन से उड़कर भीगे चमड़े पर पड़ी हुई धूल उसके साथ चिपक जाती है उसी प्रकार, 'कषाय' के कारण कर्म जीवात्मा में जुड़ जाते हैं भोर 'वीर' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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