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________________ जैनदर्शन में जीवात्मा तथा मुकात्मा डा० प्रमोद कुमार जैन बिजनौर Jain Education International जैन दर्शन के अनुसार जीव भी एक 'द्रव्य, है । द्रव्य छ: हैं - धर्म, अधर्म, ग्राकाश, पुद्गल, काल प्रोर जीव । इनमें जीव एक 'चेतन द्रव्य' है । चैतन्य ही जीव का लक्षण है । 1 तत्वार्थ सूत्र के अनुसार जीव का लक्षण है - 'उपयोग' | चेतना शक्ति को ही 'उपयोग' कहते हैं । यह उपयोग दो प्रकार का होता है- 'दर्शन' तथा 'ज्ञान' | निर्विकल्प ज्ञान ही 'दर्शन' कहलाता है और सविकल्पक को 'ज्ञान' कहा गया है । 3 ज्ञान के प्रतिरिक्त इच्छा आदि भी जीव के गुण माने गये हैं । ये ज्ञान प्रदि, जो जीव के गुण माने गये हैं, जीव से भिन्न हैं या अभिन्न, इस विषय में भारतीयदर्शन में विविध मत मिलते हैं । जैनदर्शन अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के अनुसार बतलाता है। कि ज्ञान आदि न जीव से नितान्त भिन्न है न नितान्त भिन्न ही है । वे किसी प्रकार भिन्न भी हैं और किसी प्रकार से अभिन्न भी हैं । 4 इस प्रकार जैनदर्शन न तो न्याय-वैशेषिक दर्शन के समान 'धर्म-धर्ती' के 'भेद' को ही मानता है और न सांख्य दर्शन के समान 'धर्म-धर्मी' के 'अभेद' को ही । वह तो दोनों का किसी रूप में भेद तथा किसी रूप में प्रभेद मानता है । जीव किस परिणाम वाला है ? इस विषय में भी जैनदर्शन की अपनी निजी धारणा है । जबकि प्रायः सभी आत्मवादी दर्शों ने आत्मा को विभु माना है, जनदर्शन का कथन है कि जीव न 'विभु' है और न 'रण' ही । वह जिस शरीर को धारण करता है उसमें अपनी शक्ति से व्याप्त हो जाता है और उस शरीर के परिमाण का ही हो जाता है । वस्तुतः जीव अमूर्त है । भाकाश के समान उसके असंख्य प्रदेश हैं, किन्तु कर्म सम्बन्ध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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