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________________ 1-130 साधक अहिंसक है, और प्राणातिपात न होने पर इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता मौर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है43 । धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है-जो . इस प्रकार हम देखते है कि जैन प्राचार्यो महकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता प्रान्तरिक रहा है। . हुप्रा भी मारता नहीं है और वह (अपने कर्मों के जैन प्राचार्यों के इस दृष्टिकोण के पीछे जो कारण) बन्धन में नहीं पड़ता'45 1 प्रमुख विचार रहा हुआ है, वह यह है कि व्यव- धम्मपद में भी कहा गया है 'वीततृष्ण व्यक्ति हारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और जीवन ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजामों को में सद्गुण के विकास की दृष्टि से जीवन को एव प्रजा-साहत राष्ट्र को मार कर भी, निष्पाप बनाए रखने का प्रयास यह दो ऐसी स्थितयां है होकर जाती है क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर जिनको साथ साथ चलाना संभव नहीं होता है, उठ जाता है) 45 इस प्रकार हम देखते हैं, कि अतः जैन विचारको को अन्त में यहीं स्वीकार हिंसा और हिंसा की विवेचना के मूल में प्रमाद या करना पड़ा कि हिंसा अहिंसा का सम्बन्ध चाहरी रागा द भाव ही प्रमुख तथ्य है। घटनामों की अपेक्षा प्रान्तरिक वृत्तियों स है । अहिंसाए भगवतीए-एसा सा भगवती अहिंसा-प्रश्न व्याकरण सूत्र 2/1/21-22 जे मईया, जे प पडुप्पन्ना, जे आगमिस्सा अरहता भगवतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भ्रासंति, एवं पण्णाविति एवं पारुविति-स-वे गाणा, सब्वे भूया, सव्वे जीवा, सम्वे सत्ता, न हत्तव्वा, न अज्जावेयव्वा. न परिधित्तम्बा; न bf यावेयवा, न उद्दे वेयम्वा, एस धम्मे सुढे, एस धम्मे सुद्ध, निइए, सास ! साम लोय खयाहिं ग्वहए। -प्राचारांग +11121 3. एवं खुणाणिगो सार जण हिमचिन । अहिंसा समय चेव एतावत वियारिणया। -सूत्रकृ.ग 1/4/10 तस्थिमं पढ़मं ठाणं महावीरेण देसिय । अहिंसा नि उणा दिट्ठा सव्वभू सुसजमो। · दशवे० 63 5. धम्महिमा सम नास्थ । भक्त परिज्ञा 91 6. अन्न वचन दि केवल मुद हृतं शिष्य बाधाय । -पुरुषार्थमिद्योगाय 82 7. सवेगिम-समरा दियमा व मव्व स थांग -ग० प्रा० .20 8. धम सभासतोऽहिंसा वर्ण यन्ति तथागता.. -चतुः1क 9. न तेन लिया होत, येन पण हिंसति । असा सव्वाणन, परियो ति पवुमति । -चम्नपर 270 10... जय वेरं पसवति दुःख सेनि पराजितो उपसन्तो सुखं सेति जयपर जय ।। -पम्माद 201 11. . प्रगुतर निकाय, तीसरा निपात 153 12.. गीता 10/5-7, 16/2, 17/14 . 13. एवं सर्वहिसायं धमिधियते । -महाभारत शान्तिा 245/19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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