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________________ 1-110 ऋषभ को जैन धर्म का प्रथम तीर्थकर माना कठोर साधना उन्होंने की, उसका इतिहास में दूसरा गया है। उनके जीवन के सम्बन्ध में पर्याप्त जान- उदाहरण नहीं मिलता। साढ़े बारह वर्ष तक कारी प्राप्त हो जाती है। ऋग्वेद में ऋषभ के महावीर निरन्तर साधना करते रहे । सर्वथा निर्वस्त्र उल्लेख मिलते हैं। श्रीमद्भागवत में भी उनका रह कर भीषण गरमी, शीत और वर्षा में उन्होंने चरित्र वणित है । जैन वाड्मय में तो पूरा विवरण साधना की। जेठ की तपती दोपहरी में महावीर प्राप्त होत ही है। उनके बाद के तीर्य करों के नगे बदन तप्त शिला पर बैठ जाते या खड़े रहते । जीवन के सम्बन्ध में अभी तक विशेष सामग्री कड़कड़ाती सर्दी में जब बर्फीली हवाएं सांय-सांय प्रकाश में नहीं आ पायी, इसीलिए कई लोग उनकी करती हुई बहती, पक्षी भी घोंसलों में छिपाए दुबक ऐतिहासिकता के विषय में संदेह व्यक्त करते हैं। कर बैठे रहते. ऐसे में महावीर किसी ताल के तट जो भी हो, यह सच है कि इतिहास की पकड़ पर या नदी के किनारे निरभ्र आकाश में अपनी अभी बहुत गहरी नहीं है। इसलिए जब तक खोजें अनावृत्त काया लिए ध्यान में मग्न होते । झंझावात जारी हैं तब तक मेरी समझ में हमें सूत्र रूप में पोर तूफानी बरसातें, वे अपनी खुली देह पर झेल प्राप्त संदों को भी नकारना नहीं चाहिए। भारत लेते । लगातार कई-कई दिनों, सप्ताहों और महीनों में अभी भी इन तीर्थंकरों के जीवन और साधना से तक महावीर बिना खाये, बिना पिये रह जाते । सम्बद्ध स्थान तार्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जहाँ भी जाते पैदल जाते । न बोलते न बतियाते । बोसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत और पुरुषोत्तम राम उन्हें कोई गाली देता, कठोर वचन बोलता, सुन समकालीन बताये जाते हैं । इक्कीसवें तीर्थंकर नमि लेते । अपमान करता, यातना देता, सह लेते, न और विदेह जनक का काल एक माना गया है। कुछ बोलते, न प्रतिकार करते। कोई उन्हें आदर 2वें तीर्थकर नेमि वासुदेव कृष्ण के चचेरे भाई देता, वन्दन करता, उसका भी वे उत्तर न देते। थे। 23वें तीर्थकर पाश्व का जन्म वाराणसी में साधना की इस दीर्घावधि में वे कुल मिला कर हप्रा और बिहार के सम्मेदशिखर से सौ वर्ष की मुश्किल से कुछ मुहर्त ही सोये । वे अपने जीवन पर पायु में उनका निर्वाण हुमा । प्रा ली यह पर्वत ही तरह-तरह के प्रयोग कर रहे थे। महावीर ने पार्वनाथ पह ड के नाम से जाना जाता है। जब कोरमको माना की गौर कठोर से कठोरतम साधना की और एक दिन पाया महावीर जन्मे, उस समय पार्श्व की परम्परा के कि उन्होंने अपने आप को पूरी तरह जीत लिया श्रमण बह सख्या में मौजूद थे। राजगृह पाश्वो- है जिन' हो गये। नुयायियों का गढ़ था। स्वयं महावीर के मातापिता पाश्व के अनुयायो थे । महावीर और गौतम ___ जैन दर्शन के जो सिद्धान्त हमें वर्तमान में प्राप्त बुद्ध जब संपस्त हुए तो उन्होंने पाश्व का ही हैं. उन्हें हम महावीर की साधना और चिन्तन का श्रामण्य जीवन स्वीकार किया था। पाश्व की नवनीत कह सकते हैं। महावीर के अनुयायी परम्परा के साधु 'निग्गंठ समण' और गृहस्थ अनु- प्राचार्यों ने पिछले ढाई हजार वर्षों में उन सिद्धान्तों यायी 'पापित्य कहलाते थे। की जो व्याख्याएं की, उनमें युगीन सन्दर्भ भी ... गौतम बुद्ध को पार्श्व की साधना पद्धति बहुत जुड़ते चले गए। दार्शनिक युग की जटिलताओं में कठोर प्रतीत हुई। इसलिए उन्होंने उसे छोड़ कर सीधे-साधे सिद्धान्त इतने दुरूह लगने लगे कि जीवन बीच का रास्ता निकाला, जिसे 'मध्यमप्रतिपदा' कहा के साथ उनका सम्बन्ध ही न हो। इसी युग में जाता है। महावीर ने पर्व को माधना पद्धति को धार्मिक अनुदारता के कारण सिद्धान्तों की दुर्व्याख्या और अधिक विकसित किया । कायोत्सर्ग की जितनी भी की गयी और दुरालोचना भी, पर इस सबसे . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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