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________________ 1-108 सेठ को बड़ी वेचनी हुई। वह बोला, "अच्छा तो लो, यह सीधा तुम्हीं ले लो ।" बहू ने कहा, "नहीं, हमें नहीं चाहिए ।" सेठ को काटो तो खून नहीं। अपनी प्राशा पर पानी फिरते देख उसने बड़ी व्यग्रता से पूछा, "aut?" सहजभाव से बहू ने कहा, "इसलिए कि प्राज के लिए हमारे घर में है ।" "तो," सेठ बोले, "कल काम प्रा जायगा ।" "नहीं, हम कल के लिए नहीं रखते ।" बहू वे बड़ी निश्चिंतता से कहा । " उसमें नुकसान क्या है ?" सेठ ने निराश होकर पूछा । " ' नुकसान ?" बहू बोली, "हम यह सब नहीं सोचते । जिस भगवान ने हमें पैदा किया है और आज खाने को दिया है, वही कल को भी देगा ।" सेठ ने बहुतेरा भाग्रह किया, लेकिन बहू राजी नहीं हुई, नहीं हुई । सेठ मन मार कर वापस लौटा। जाने क्याक्या विचार उसके मन में उठने लगे। तभी बिजली सी कौंधो। कोई कह रहा था— श्री सेठ, एक और ये लोग हैं, जो कल की चिन्ता नहीं करते । दूसरी और तू है, जो म्रपने बच्चों के बच्चों की चिन्ता में मरा जा रहा है । सेठ की आंखें खुल गई। एक बहुत बड़ी संपदा उसके हाथ लग गई । वर्तमान युग में जो आर्थिक विषमता दिखाई देती है, उसका मुख्य कारण अधिक-से-अधिक संचय करने की लालसा के फलस्वरूप समाज में दो ऐसे वर्ग पैदा हो गये हैं, जिनमें से एक के पास बेहिसाब धन है, दूसरे के पास नितान्त प्रभाव है । दोनों वर्गों के बीच चौड़ी खाई है प्रोर वह निरन्तर बढ़ती जा रही है । भगवान महावीर इसी खाई को पाटने के लिए सब कुछ त्याग कर अकिंचन बने । वह जानते थे Jain Education International कि एक महल हजारों झोपड़ियों को जन्म देता है, एक ही उमींदी लाखों को पामाल कर देती है इसलिए उन्होंने कहा, इच्छामों की सीमा बांधों और परिग्रह - परिणाम का व्रत लो । जो इच्छाओं पर बन्धन नहीं लगाता, अपनी धन सम्पत्ति के चारों श्रोर रेखा नहीं खींचता, वह जीवन में सदा भटकता रहता है । एक दूसरी बात और भी ध्यान देने की है । परिग्रह क्लेश का कारण तब और बन जाता है, जबकि उसके प्रति हमारी पासक्ति होती है । वस्तुतः पदार्थ और उसके प्रति मोह मूर्च्छा का नाम ही परिग्रह है । प्राज से ढाई हजार वर्ष पहले व्यक्ति, समाज भोर राष्ट्र की सुख-शान्ति के लिए जो मार्ग, महावीर ने सुझाया था, उसी मार्ग को वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने प्रशस्त किया । उन्होंने कहा कि हम श्रावश्यकता से अधिक कुछ भी रखते हैं तो चोरी करते हैं । उन्होंने यहां तक कहा कि अनावश्यक विचार भी परिग्रह हैं । मनुष्य सामाजिक प्राणी है । एक का सुख दुख दूसरे के सुख दुख पर निर्भर करता है । पड़ोसी को भूख से छटपटाते देखते हुए जो स्वयं खाकर चैन की नींद सो सकता है, उसे मनुष्य की नहीं, कुछ और ही संज्ञा दी जा सकती है । मानवता का तकाजा है कि हम समाज में व्याप्त प्रार्थिक वैषम्य को दूर करने के लिए कृतसंकल्प हों। उसी में हमारा भला है, दूसरों का भला है । जीवन की लम्बी यात्रा तभी सुगम और सरल हो सकती है, जबकि हमारे सिर पर कम से कम बोझ हो । भार-मुक्त होकर ही पक्षी गगन में विचरण कर सकता है । किचन बन कर व्यक्ति जीवन का सच्चा मानन्द ले सकता है । इस आदर्श स्थिति को दुर्बल मानव भले ही प्राप्त न कर सके, लेकिन जीवन यात्रा को श्रानन्द-दायक बनाने के लिए उस दिशा में अग्रसर तो होना ही चाहिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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