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________________ 1-76 जब तक कोई पत्थर न बरसाएं, उपद्रव न करे बंधन नहीं है। उसमें सर्व-बन्धनों की अस्वीकृति और उपद्रव में भी कोई महात्मा शान्त न बना रहे है। साधु का कोई वेष नहीं होता, नग्नता कोई तब तक हमें उसकी वीत-द्वेषता समझ में नहीं वेष नही । वेष साज-संभार है, साधु को सजनेपाती। यदि प्रबल पुण्योदय से किसी महात्मा के संवरने की फुर्सत ही कहाँ है ? उसका सजने का इस प्रकार के प्रतिकूल संयोग न मिलें तो क्या वह भाव ही चला गया है । सजने में "मैं दूसरों को वीतरागी और वीतद्वेषी नहीं बन सकता, क्या कैसा लगता हूं ?" का भाव प्रमुख रहता है । साधु वीतरागी और वीतषी बनने के लिए देवांगनाओं को दूसरों से प्रयोजन ही नहीं है, वह जैसा है वैसा का डिगाना और राक्षसों का उपद्रव प्रावश्यक ही है। वह अपने में ऐसा मग्न है कि दूसरों के है ? क्या वीतरागता इन काल्पनिक घटनाओं के सरे उसके बिना प्राप्त और संप्रेषित नहीं की जा सकती है ? बारे में क्या सोचते हैं, इसकी उसे परवाह ही नहीं। क्या मुझे क्षमाशील होने के लिए सामने वालों का सर्व वेष शृगार के सूचक हैं। साधु को शृंगार गाली देना, मुझे सताना जरूरी है, क्या उसके की आवश्यकता ही नहीं। प्रतः उसका कोई वेष सताए बिना मैं शान्त नहीं हो सकता ? ये कुछ नहीं होता । ऐसे प्रश्न हैं, जो बाह्य घटनाओं की कमी के । कारण महावीर के चरित्र में रूखापन मानने वालों दिगम्बर कोई वेष नहीं है, सम्प्रदाय नहीं है, मौर चिन्तित होने वालों को विचारणीय हैं।। वस्तु का स्वरूप है। पर हम वेषों को देखने के . वन में जाने से पूर्व ही महावीर बहुत कुछ इतने आदी हो गये हैं कि वेष के बिना सोच नहीं वीतरागी हो गये थे । रहा-सहा राग भी तोड़, सकते। हमारी भाषा वेषों की भाषा हो गयी है। प्रतः हमारे लिए दिगम्बर भी वेष हो गया है। पूर्ण वीतरागी बनने, नग्न दिगम्बर हो वन को चल पड़े थे। उनके लिए वन और नगर में कोई हो क्या गया,-कहा जाने लगा है। सब वेषों में भेद नहीं रहा था। सब कुछ छूट गया था, वे सब कुछ उतारना पड़ता है और कुछ पहिनना होता है, से टूट गये थे। उन्होंने सब कुछ छोड़ा था; कुछ पर इसमें छोड़ना ही छोड़ना है, अढ़ा कुछ भी नहीं है। छोड़ना भी क्या उधेडना है, छटना है। प्रोढ़ा न था । वे साधु बने नहीं, हो गये थे । साधु अन्दर से सब कुछ छुट गया है, देह भी छूट गयी बनने में वेष पलटना पड़ता है, साधु होने में स्वयं है, पर बाहर से प्रभी वस्त्र ही छटे हैं, देह छूटने ही पलट जाता है। स्वयं के बदल जाने पर वेष में अभी कुछ समय लग सकता है, पर वह भी भी सहज ही बदल जाता है। वेष बदल क्या छूटना है, क्योंकि उसके प्रति भी जो राग था वह जाता है, सहज वेप हो जाता है, यथा-जात वेष हो टूट चुका है । देह रह गयी है तो रह गयी है, जब जाता है; जैसा पैदा हुआ था. वही रह जाता है, छूटेगी तब छूट जायगी, पर उसकी भी परवाह बाकी सब छूट जाता है। छूट गयी है। वस्तुत: साधु की कोई ड्रेस ही नहीं है, सब डेसों का त्याग ही साधु का वेष है । ड्रेस बदलने महावीर मुनिराज बर्द्धमान नगर छोड़ वन में' से साधुता नहीं पाती, साधुना माने पर ड्रेस छूट चले गये। पर वे वन में भी गये कहां हैं ? वे तो जाती है। यथा जातरूप (नग्न) ही सहज वेष है अपने में चले गये हैं, उनका वन में भी अपनत्व पौर सब वेष तो श्रमसाध्य हैं, धारण करने रूप कहां है ? उन्हें बनवासी कहना भी उपचार है, हैं । वे साधु के वेष नहीं हो सकते क्योंकि उनमें वे वन में भी कहां रहे ? वे तो मात्मवासी हैं। गांठ है, उनमें गांठ बांधनों अनिवार्य है, साधुता न उन्हें नगर से लगाव है, म वन से; वे तो दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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