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________________ 1-86 उनके बचपन में ही स्याद्वादी चिन्तन प्रारम्भ हो स्वरूप कहने लगता है तो एक बार में उसके किसी गया था। कहा जाता है कि एक दिन वर्द्धमान के एक गुण को ही कह पाता है । यही स्थिति संसार कुछ बालक साथी उन्हें खोजते हुए मां त्रिशला के की प्रत्येक वस्तु की है । पास पहुंचे। त्रिशला ने कह दिया 'वर्द्धमान भवन हम प्रतिदिन सोने का प्राभूषण देखते हैं। में ऊपर है।' बच्चे भवन के सबसे ऊपरी खण्ड पर __ लकड़ी की टेबिल देखते हैं। और कुछ दिनों बाद पहुंच गये । वहां पिता सिद्धार्थ थे, वर्द्धमान नहीं। ___ इनके बनते-बिगड़ते रूप भी देखते हैं। किन्तु सोना जब बच्चों ने पिता सिद्धार्थ से पूछा तो उन्होंने कह और लकड़ी वही बनी रहती है। आज के मशीनी दिया-'वर्द्धमान नीचे है। बच्चे नीचे की मंजिलों युग में किसी धातु के कारखाने में हम खड़े हो पर दौड़ पड़े। उन्हें बीच की एक मंजिल में खिड़की जाय तो देखेंगे कि प्रारम्भ में पत्थर का एक टुकड़ा पर खड़े हुए वर्द्धमान मिल गये। बच्चों ने महावीर मशीन में प्रवेश करता है और अन्त में जस्ता, से शिकायत की कि आज आपकी मां एवं पिता तांबा प्रादि के रूप में बाहर पाता है। वस्तु के दोनों ने झूठ बोला । एक ने कहा था वर्द्धमान इसी स्वरूप के कारण महावीर ने कहा था प्रत्येक ऊपर है, दूसरे ने कहा था-वर्द्धमान नीचे है, पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता से युक्त है। जबकि तुम यहां बीच के खण्ड में खड़े हो । न नीचे द्रव्य के इस स्वरूप को ध्यान में रखकर उन्होंने थे, न कार। जड़ और चेतन प्रादि छ: द्रव्यों की व्याख्या की वर्द्ध मान ने अपने साथियों से कहा- 'तुम्हें है। मति, श्रुति, केवलज्ञान प्रादि पांच ज्ञानों भ्रम हुआ है। मां एवं पिता जी दोनों ने सत्य के स्वरूप को समझाया है। केवलज्ञान द्वारा हम कहा था। तुम्हारे समझने का फर्क है। मां नीचे सत्य को पूर्णतः जान पाते हैं । अतः सामान्य ज्ञान की मंजिल पर खड़ी थीं। अतः उनकी अपेक्षा मैं के रहते हम वस्तु को पूर्णतः जानने का दावा नहीं ऊपर था और पिताजी सबसे ऊपरी खण्ड पर थे कर सकते । जान कर भी उसे सभी दृष्टियों से इसलिए उनकी अपेक्षा में नीचे था। वस्तुओं की अभिव्यक्त नहीं कर सकते । इसलिए सापेक्ष कथन सभी स्थितियों के सम्बन्ध में इसी प्रकार सोचने से की अनिवार्यता है। सत्य के खोज की यह हम सत्य तक पहुंच सकते हैं। भ्रम में नहीं पड़ते।' पगडंडी है। वर्द्धमान की यह व्याख्या सुन कर बालक हैरान अनेकान्त-दर्शन महावीर को सत्य के प्रति रह गये । महावीर स्याद्वाद की बात कह गये। निष्ठा का परिचायक है। उनके सम्पूर्ण मोर स्याद्वाद और भनेकान्तवाद में घनिष्ठ सम्बन्ध यथार्थ ज्ञान का द्योतक । महावीर की अहिंसा का है। भगवान महावीर ने इन दोनों के स्वरूप एवं प्रतिबिम्ब है-स्याद्वाद। उनके जीवन की यह महत्व को स्पष्ट किया है। अनेकान्तावाद के मूल साधना रही है कि सत्य का उद्घाटन भी सही में है--सत्य की खोज । महावीर ने अपने अनुभव हो तथा उसके कथन में भी किसी का विरोध न से जाना था कि जगत् में परमात्मा अथवा विश्व हो। यह तभी सम्भव है जब हम किसी वस्तु का की बात तो अलग व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान द्वारा स्वरूप कहते समय उसके अन्य पक्ष को भी ध्यान घटको भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाता। रूप, में रखें तथा अपनी बात भी प्रामाणिकता से कहें । रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों से युक्त वह घट छोटा• 'स्यात् शब्द के प्रयोग द्वारा यह सम्भव है। यहां बड़ा, काला-सफेद, हल्का-भारी, उत्पत्ति-नाश आदि 'स्यात्' का अर्थ है-किसी अपेक्षा से यह वस्तु मनम्त धर्मों से युक्त है। पर जब कोई व्यक्ति उसका ऐसी है.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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