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________________ भगवान महावीर का स्याद्वाद Jain Education International - डॉ. प्रेमसुमन जैन सहायक प्रोफेसर, प्राकृत, संस्कृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय महावीर विश्व इतिहास में एक ऐसा नाम है, जिसने ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में मानवता की ज्योति जलाई थी । जगत् के समस्त प्राणियों के हित के लिए उस महापुरुष ने अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद, श्रादि कल्याणकारी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया था । श्राज सारा विश्व भगवान् महावीर को उनके इन्हीं लोकोपकारी उपदेशों के लिए याद कर रहा है । महावीर के युग में चिन्तन की धारा अनेक टुकड़ों में बंट गयी थी । वैदिक परम्परा के भनेक विचारक तथा श्रमण परम्परा के 6-7 दार्शनिकों का उस समय अस्तित्व था । ये सभी चिन्तक अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य को पूर्ण रूप से जान लेने का दावा कर रहे थे । प्रत्येक के कथन में यह ग्रह था कि सत्य को मैं ही जानता हूँ, दुसरा नहीं । महावीर यह सब देख-सुन कर माश्चर्य में थे कि सत्य के इतने दावेदार कैसे हो सकते हैं ? सत्य का स्वरूप तो एक होना चाहिए। ऐसी स्थिति में महावीर ने अपनी साधना और अनुभव के आधार पर कहा कि सत्य उतना ही नहीं है, जिसे व्यक्ति देख या जान रहा है । यह वस्तु के एक धर्म का ज्ञान है। एक गुरण का पदार्थ में अनन्त धर्म, अनेक गुण तथा पयायें होती हैं। किन्तु व्यवहार में उसका कोई एक स्वरूप ही हमारे सामने श्राता है । उसे ही हम जान पाते हैं। शेष घर्मं प्रकथित रह जाते हैं । अतः प्रत्येक वस्तु का कथन सापेक्ष रूप से हो सकता है । यही कथन पद्धति स्याद्वाद है । जैनाचार्यो ने महावीर के इसी कथन का विस्तार किया है । स्याद्वाद महावीर के जीवन में व्याप्त था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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