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________________ 1-67 सुकोमल चरणों वाले योगिराज-महावीर, जब ही एक परिवार में मुण्डित-मस्तक होकर वन्दिनी पैदल ही तपस्या हेतु वनखण्ड में पहुंचे तब कंकरीले का जीवन व्यतीत कर रही थी। उसके पैरों में पथरीले मार्ग में चलने के कारण उनके पैर खून बेडियां पड़ी रहती थीं। दिन भर के परिश्रम करने से लथपथ हो गए किन्तु इन कष्टों का अनुभव के बाद उसे कोदों एवं मट्ठा खाने को मिलता किए बिना ही शीत ऋतु में दिगम्बर मुद्राधारी वे था। महावीर को निराहार देखकर वह विह वल हो मात्मध्यान में इस प्रकार लवलीन हुए कि उसकी उठी और उसने उन्हें माहारदान देने का निश्चय निश्चल मुद्रा से हिरणों ने उन्हें पाषाण प्रतिमा किया। अगले दिन उसने पवित्र मन से मढे में समझ लिया और अपनी खुजली तक उनसे खुजलाने कोदों को मिट्टी के बर्तन में पकाया और चर्या को लगे जैसा कि कहा गया है : निकले हु। महावीर को पडगाहकर उन्हें प्राहार शीत तप नदी के किनारे वीर थे जब कर रहे। दान दिया। यह देखकर सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। दिव्य सन्त के प्रभाव से चन्दना की हिरण उनके रगड तन को खाज अपनी हर रहे ॥ महेरी सुन्दर खीर में बदल गई तथा चन्दना के प्रबल झंझा के झकोरे बरसता था अमित जल मिट्टी के बर्तन स्वर्ण पात्रों में बदल गए :वृक्ष टप-टप टपकता था, किन्तु, वीर थे तप में मवल ____ महावीर ने अपने तपस्याकाल में दुधा, सो वह तक्र कोद्रवन वोद पिपासा, शीत, गर्मी, दंशमशक मादि बाईस परीषहों तन्दुल खीर भयो अनुमोद । को सहन करते हुए बारह वर्षों मर्थात् 4320 माटी पात्र हेममय सोय दिनों तक मौन पूर्वक तपस्या की। इस बीच में घरम तने फल कहा न होय । उन्होंने कुल मिलाकर 349 दिनों में 1-1 बार पाहार दान की वह बेला वन्दिनी चन्दना पारणा की। सती के उदार की प्रभुत घटना तथा महिला पारणा के पूर्व वे कभी-कभी अपने मन में समाज के उतार के इतिहास का स्वर्ण पृष्ठ ही बड़ी विचित्र प्रतिज्ञाए कर लेते थे। उनकी पूर्ति बन गया । मागे चलकर वह चन्दना सती महावीर न हो पाने में उन्हें लगातार 6-6 मास तक भी के चतुर्विध संघ में मार्यिका-संघ की प्रधान मधिपाहार नहीं मिल पाता था। एक वार कोशम्बी ष्ठात्री बनी। के वन में उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि मैं ऐसी प्रभागिन महावीर प्रपने तपस्या काल में तीन दिन से पाजकुमारी के हाय से माहार ग्रहण करूंगा जिसका अधिक एक स्थान पर नहीं रुकते थे। हां वर्षा ऋतु सिर मुडा हुआ हो, पैरों में बेड़ी पड़ी हो और के चार मास वे प्रवश्य ही एक स्थान पर व्यतीत वह वन्दिनी के रूप में पभिशप्त जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने कुल बारह चतुर्मास किए जिनमें कर रही हो। उनकी यह प्रतिज्ञा 6 माह तक पहला चतुर्मास पस्थिग्राम में हुआ। उसके वाद पूरी न हो सकी और निराहार रहकर ही वे क्रमशः नालन्दा, चम्पापुरी, पृष्ठ चम्पा, भद्दीया, तपस्या करते रहे। अपने लोक नायक को दीर्घकाल प्रालमिका, राजगृह, लाढ़, श्रावस्ती, विशाला एवं तक निराहार देखकर जनता अत्यन्त व्याकुल हो चम्पापुर में उनके चतुर्मास हुए ! अस्थिग्राम का उठी, किन्तु प्रतिज्ञा न समझ पाने के कारण वह दूसरा नाम वर्तमानपुर था। पुरातत्ववेताओं ने सर्वथा विवश थी। खोजबीन करके सिद्ध किया है कि बंगाल प्रान्त का ___ संयोग से दुर्भाग्य की मारी चेटकराज की वर्तमान कालीन 'बर्दमान' नगर ही वह प्राचीन राजकुमारी चन्दना किसी कारणवश कौशाम्बी के प्रस्थिग्राम प्रथवा वर्धमानपुर है। पृष्ठ चम्पा एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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