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________________ उक्त विवरण से ज्ञात होता हैं कि भगवान महावीर ने अपने छद्मस्थ तपस्या काल के 12 वर्ष 6 मास और 15 दिन में केवल 349 दिन ही भोजन किया। शेष दिनों में उन्होंने निर्जल उपवास ही किए। वे गांव या शहर में प्रविष्ट होकर गृहस्थ के द्वारा अपने परिवार के पोषण के लिए बनाए गए आहार में से प्रत्यन्त शुद्ध निर्दोष श्राहार की गवेषणा करते थे और उस निर्दोष आहार को संयत योगों से विवेकपूर्वक सेवन करते थे 13 वे ब्राह्मण, श्रमण, गांव के भिखारी प्रथवा प्रतिथि, चाण्डाल, बिल्ली, कुत्ता आदि नाना प्रकार के यदि खड़े हों तो उनकी वृत्ति का भङ्ग न करते हुए मिक्षार्थ गमन करते थे 114 भूख से बुभुक्षित वाय' सादि पक्षियो को मार्ग में गिरे हुए अन्न को खाते देखकर वे उन्हें नहीं उड़ाते हुए विवेकपूर्वक चलते थे, जिससे उनके आहार में विघ्न न पड़े 115 चातुर्मास - भगवान महावीर ने निर्जन और दुरूह वनों में विहारकर योगसाधना की । वह तीन दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे । वर्षा ऋतु में चार माह वे एक स्थान पर रहते थे । बारह वर्ष की तपस्या में उन्होंने बारह चातुर्मास विभिन्न स्थानों पर रहकर व्यतीत किए । दिगम्बर ग्रन्थों में उनके नाम नहीं मिलते । श्वेताम्बर कल्पसूत्र के अनुसार भगवान ने पहला चातुर्मास अस्थिग्राम (वर्द्धमान) में व्यतीत किया । उपरान्त उन्होंने मालन्दा, चम्पापुरी, पृष्ठचम्पा, भद्दीया. आलभिका, राजगृह, लाढ़, श्रावस्ती, विशाला और चम्पापुर में तुर्मास किए 128 सिंहवृत्ति- - भगवान महावीर ने अपने तपः काल में सहवृत्ति 17 धारण की। प्राचार्य गुणभद्र अनुसार यद्यपि उनके सिंह के समान तीक्ष्ण नख और तीक्ष्ण दाढें नहीं थी। वे सिंह के समान क्रूर नहीं थे और न सिंह के समान उनकी गर्दन पर लाल बाल थे, फिर भी शूरवीरता, अकेला रहना तथा बन में निवास करना इन तीन विशेषताओं मैं सिंह का अनुकरण करते थे 148 Jain Education International 1-51 1 श्राहार- भगवान महावीर मुनि अवस्था में नवधाभक्ति 19 पूर्वक दिया गया प्रहार ग्रहण करते थे । उदाहरणार्थ दीक्षा लेते ही ढाई दिन का अनशन 2° समाप्त कर वे कूलग्रामपुरी ( कूलपुर, कोल्लग सन्निवेश) पहुंचे। वहां कूल नामक राजा ने भक्तिभाव से युक्त हो उनके दर्शन किए, तीन प्रदक्षिणायें दी, चरणों में सिर झुकाकर नमस्कार किया और घर पर भाई हुई निधि के समान उन्हें माना । राजा ने श्रेष्ठ स्थान पर बैठाया, श्रधं आदि के द्वारा उनकी पूजा की, उनके चरणों के समीपवर्ती भूतल को गन्ध आदि से विभूषित किया और मन, वचन, काय की शुद्धि के साथ इष्ट प्रयोजन को सिद्ध करने वाला परमान्न ( खीर का प्राहार) दिया । उक्त दान के फलस्वरूप उनके घर पर पञ्चाश्चर्य 21 हुए ईर्या समिति - भगवान महावीर पुरुषप्रमाण आगे की भूमि को देखते हुए ऊर्ध्व शकरवत् (पीछे से संक्षेप और भागे से विस्तार वाली घुट्टी की तरह) दृष्टि को प्रागे रखकर (देखकर) अपने मन को ईर्यासमिति में लगाकर चलते थे। उस समय उनके दर्शन से डरे हुए बालक मिलकर धूलि से भरी हुई मुष्टि को मारकर कोलाहल करते थे 122 भगवान इसे समभाव पूर्वक सहन करते थे । उपसर्ग विजय -- भगवान महावीर पर बड़े बड़े दैहिक उपसर्ग आए जिनका वर्णन पढ़ते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं और दिल कांपने लगता है । इस विशाल भूतल पर प्रसंख्य महापुरुष, प्रवतार कहे जाने वाले विशिष्ट पुरुष तथा तीर्थ कर हुए हैं. किन्तु इतनी कठिन तपस्या करने वाला कोई दूसरा पुरुष नहीं हुआ । भयानक से भयानक यातनाथों में भी उन्होंने अपरिमित धैर्य, साहस एवं सहिष्णुता का प्रादर्श उपस्थित किया । 23 एक दिन वे उज्जयिनी के प्रतिमुक्तक श्मसान में प्रतिमायोग से विराजमान थे । उन्हें देखकर महादेव नामक रुद्र मे अपनी दुष्टता से उनके धेर्य की परीक्षा करना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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