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________________ बौद्धदर्शन में कालतत्त्व के कारण इनके मत में यद्यपि काल की द्रव्यसत्ता है, फिर भी संस्कृत धर्मो से भिन्न उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। काल स्कन्धस्वभाव ही है। तैर्थिक लोग जैसे सभी धर्मों के आधार के रूप में काल की वस्तुनिरपेक्ष स्वतन्त्र एवं नित्य द्रव्य सत्ता स्वीकार करते हैं, वैसी काल की सत्ता इस मत में मान्य नहीं है। दिवस, मास, ऋतु, संवत्सर आदि के रूप में जो काल की सत्ता है, वह तो नितान्त व्यावहारिक एवं प्राज्ञप्तिक है। सौत्रान्तिक __इस मत में भी काल की वस्तुनिरपेक्ष स्वतन्त्र सत्ता मान्य नहीं है। काल एक 'चित्त विप्रयुक्त' संस्कार नामक प्रज्ञप्तिसत् धर्म है। चित्तविप्रयुक्त संस्कार वे धर्म होते हैं, जो परमार्थसत् (द्रव्यसत्) धर्मों को आधार बनाकर प्रज्ञप्त होते हैं। आशय यह है कि घट आदि धर्मो की जो उत्पाद, भङ्ग आदि क्रियाएं हैं, उनमें ही काल की प्रज्ञप्ति होती है। वस्तुत: वही घट का काल है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि की गति एवं परिवर्तन को आधार बनाकर क्षण, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, मास, ऋतु, संवत्सर आदि का व्यवहार होता है। घट आदि वस्तु से भिन्न काल की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यदि वस्तु से भिन्न काल की सत्ता नहीं है तो काल की व्यवस्था कैसे की जा सकेगी? यद्यपि काल वस्तु से भिन्न सर्वथा नहीं है, तथापि सविकल्प बुद्धि में वह वस्तु से भिन्नत्वेन प्रतिभासित होता है। उस प्रतिभास में वस्तु का कुछ भी अंश नहीं होता, फिर भी बुद्धि की उस प्रतीति को अभ्रान्त मानकर बौद्धेतर दार्शनिक काल की स्वतन्त्र रूप से सत्ता मान लेते हैं। कालविषयक वह बुद्धि निश्चय ही निर्विकल्प ज्ञान नहीं है, इसलिए वह बुद्धि अभ्रान्त भी नहीं है, अपि तु भ्रान्त है। कल्पना-बुद्धि में सर्वदा अर्थसदृश अर्थप्रतिनिम्न तथा शब्द सुनने से उत्पन्न प्रतिबिम्ब भासित हुआ करता है। वह प्रतिभास वस्तुलक्षणशून्य होने पर भी वस्तुसदृश होने के कारण भ्रान्ति से वस्तु के रूप में गृहीत होता है। दार्शनिक चिन्तन का यही स्थल महत्त्वपूर्ण केन्द्र-बिन्दु है। इसका सम्यग्ज्ञान न होने के कारण दार्शनिकों में मतभेद उत्पन्न होते हैं। काल की भी वस्तु से भिन्नत्वेन प्रतीति कल्पना बुद्धि में होती है, किन्तु भिन्नत्वेन प्रतीत वह आभास नितान्त काल्पनिक है, वह आभास निश्चय ही वस्तुस्थिति नहीं है। उस आभास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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