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________________ श्रमणविद्या- ३ सत्ता भवन्तु सुखितत्ता' - हरेक प्राणी आनन्दित रहे यही आदर्श है, इस प्रकार की भावना का अभ्यास करने वाले का । परन्तु केवल मन में सबकी भलाई और सुख की भावना का पालन ही पर्याप्त नहीं है। आकांक्षी व्यक्ति को उच्च या नीच सुख के लिए प्राणियों के प्रति असीम प्रेमपूर्ण उत्साहित हृदय से एकाग्र होकर कार्य करना पड़ेगा और अन्ततः यह अहिंसा के विचार के संग जुड़ा है। इन दोनों वर्गों के अभ्यास और मनन से एक आभ्यन्तरीन सामंजस्य और भ्रातृत्व की सृष्टि होती है जो कि इस बढते औद्योगिक, अवैयक्तिक, आधुनिक सम्यता के लिए हितकारी फल देते हैं । विश्वजनीन करुणा या करुणा भावना है। दूसरी प्रक्रिया जो कि सभी प्राणियों के प्रति ऐसा कि पंक्षी के फंदे में लटकाते हुए दोषी के प्रति भी करुणा की भावना रखने में सहायता करती हैं। इस भावना का अभ्यास किसी अपरोक्ष करुणा भावना का नहीं, बल्कि सुधार के लिए सक्रिय कार्य की आवश्यकता पर जोर देता है । अभ्यासरत व्यक्ति को सक्रिय रूप से अपनी भावनाओं को कार्यों में ढ़ालने में व्यस्त रहना चाहिए और जब तक उसने पीड़ित विश्व को आराम न पहुँचाया हो तब तक उसे सन्तुष्ट हो कर विश्राम नहीं करना चाहिए । ६० मुदिता जो कि तीसरा ब्रह्मविहार है और एक महत्त्वपूर्ण नैतिक मनोभाव है किसी दूसरे व्यक्ति, ऐसा कि शत्रुओं के भी आनन्द में आनन्दित होना, इस अभ्यास के अन्तर्गत आता है। उपेक्खा जो कि ब्रह्मविहारों के विभाजन में अन्तिम है - इसके अभ्यास से धैर्य की भावना उत्पन्न होती है। इन चार आदर्शो का ठीक से पालन विश्व की अशान्त भावनाओं को निर्मूल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है और विभिन्न आवोहवा और अभिरुचि के लोगों के बीच भ्रातृत्व और एकता की भावना जागृत करने में अत्यन्त सहायक हो सकता है । प्रेम, बन्धुत्व और करुणा के माध्यम से हृदय को उदात्त और शुद्ध बनाने वाले बुद्ध के विचार अनिच्च (अनित्य) अनत्त (अनात्म) और दुक्ख (दुःख) का संदेश एक साथ मिलाकर समस्या दुःख दुर्दशा पीड़ित विश्व को मुक्त कराने की प्रतिश्रुति देते हैं। स्वभाव से ही जागतिक प्राणी आत्मकेन्द्रित होते हैं और वासना या तहा या तृष्णा इस आत्मकेन्द्रिता की जड़ है । बुद्ध ने इस मूलभूत सत्य को उजागर किया और उपचार का उपाय सुझाया। उन्होनें बताया कि पुण्य और ज्ञान एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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