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________________ ३६ श्रमणविद्या-३ 'द्वेमे भिक्खवे पुग्गला दुल्लभा लोकस्मिं–कतमे द्वे? यो च पुब्बकारी यो च कतजू कतवेदी' (अं.नि. १।८०)। इस प्रकार के लोग दो प्रकार के है एक आगारिक तथा दूसरे अनागारिक। आगारिक में माता-पिता पूर्वकारी ‘पुब्बकारी' कहे जाते हैं और दारक-दारिका जो माता-पिता की देखभाल करते हैं उनकी सहायता करते है कृतज्ञ और कृतवेदी कहे जाते है। अनागारिक जीवन में उपाध्याय और आचार्य पूर्वकारी कहे जाते है क्योकिं वे अपने अन्तेवासियों तथा सार्द्धविहारिकों का अपरिमित कल्याण करते है पूर्वकारी कहे जाते हैं और अन्तेवासी तथा सार्द्धविहारिक जो उनकी देखभाल करते हैं, उनके प्रति सम्मान प्रकट करते हैं वे कृतज्ञ और कृतवेदी कहे जाते हैं। इस प्रकार कृतज्ञता ज्ञापित करने वाला संसार में संपूज्य होता है। और यश का भागी होता है। अत: कृतज्ञता उत्तम मङ्गल है। (७) समय से धर्मश्रवण करना (कालेन धम्मसवनं) उत्तम मंगल है। जिस समय चित्त औद्धत्य एवं कामवितर्कादि से अभिभूत होता है। उस समय उसके निराकरण के लिए धर्मश्रवण अपरिहार्य है। यह भी निर्देश दिया गया है कि प्रत्येक पाँचवे दिन धर्मश्रवण को समय से धर्मश्रवण कहा गया है। हम लोगों को एक साथ रातभर सत्यविचारों पर वार्ता करने के लिए समवेत हो बैठना चाहिए। यह संशयो का निराकरण करता है। जैसा कि कहा गया है संशयापन्न स्थिति में अपने शास्ता के पास समय-समय पर पूछता है। यह कैसे है? इसका क्या अर्थ है? शास्ता उसे स्पष्ट करते हैं और विसंवादी तथ्यों का निराकरण करते हैं। जिस समय आर्यश्रावक मनोयोग पूर्वक कान लगाकर धर्मश्रवण करता है उस समय उसके पाँच नीवरण नहीं होते हैं। अवहित होकर समय से धर्मश्रवण करने से पाँच लाभों को व्यक्ति प्राप्त करता है-वह अश्रुत का श्रवण करता है, संशय को हटाता है, अपने विचार को स्पष्ट करता है और उसका हृदय पर्यवदात एवं प्रशान्त हो जाता है। (४) निर्वाण का मार्ग निर्वाण का मार्ग मध्यमाप्रतिपदा है जो आत्मनिर्यातनमयी साधना तथा आत्यन्तिक भोग लिप्सा इन दो का परिवर्जन करती है। आर्यअष्टांगिक मार्ग आठ अंगो से अन्वित है जिसमें सम्पक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्पक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, तथा सम्यक् समाधि के नाम उल्लेख्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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