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________________ बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा (४) सन्तुट्ठी अर्थात संतोष को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है। सन्तुष्टी तीन प्रकार की कही गयी है—- चीवर में यथालाभसन्तोष, यथाबलसन्तोष, यथासारूप्यसन्तोष, भिक्षु सुन्दर या असुन्दर चीवर को प्राप्त कर उसी से जीवन यापन करता है, अन्य चीवर की अभिलाष नहीं करता है । प्राप्त होने पर भी वह दूसरे चीवर को ग्रहण नहीं करता है। यह भिक्षु का चीवर के सन्दर्भ में यथालाभ सन्तोष है। भिक्षु आबाधिक होता है । गुरुचीवर से वह कष्ट पाता है। वह दूसरे भिक्षु हल्का चीवर ग्रहण कर उसी से सन्तुष्ट रहता है इसे यथाबलसंतोष कहते हैं । भिक्षु महार्घ्य मूल्यवान चीवर को प्राप्त करता है और यह सोचता है कि यह चिरप्रव्रजित बहुश्रुत भिक्षुओं के अनुरूप है, यह जानकर स्थविर भिक्षुओं को देखकर पंसुकूलचीवर धारण कर भी संतुष्ट रहता है -- इसे यथासारुप्प संतोष कहते हैं । पिण्डपात के सदर्भ मे भिक्षु चाहे रुक्ष रूखा- सुखा अथवा प्रणीत सुन्दर स्वादिष्ट जिस तरह का पिण्डपात ग्रहण करता है और उसे ग्रहण कर सन्तुष्ट रहता है। दूसरे पिण्डपात की आकांक्षा नहीं करता है - प्राप्त होने पर ग्रहण नहीं करता है— पिण्डपात के सन्दर्भ में यह यथालाभ सन्तोष है । इसी प्रकार शयनासन के सन्दर्भ में, भैषज्य के सन्दर्भ में - यथालाभसन्तोष । यथाबलसन्तोष तथा यथासारुप्पसन्तोष को प्राप्त कर सन्तुष्ट रहता है। सुतनिपात के खग्गविसाण सुत्त में कहा गया है ३५ चातुद्दिसो अप्पटिघो च होति, सन्तुस्समानो इतरीतरेना। परिस्सयानं सहिता अछम्भी, एको चरे खग्गविसाणकप्पो । चारो दिशाओं में जो विश्रुत है और झगड़ालु नहीं है और जो कुछ पाकर सन्तुष्ट रहता है, भयरहित होकर विपत्तियों को पार कर रहता है वह खड्गविषाण की तरह अकेला विचरण करे । (६) 'कत्तञ्जुता' कृतज्ञता को भगवान् बुद्ध ने उत्तममङ्गल कहा है। किसी व्यक्ति के द्वारा थोडा या बहुत किए गए उपकार का पुनः पुनः अनुस्मरण भाव से जानने को कृतज्ञता कहते हैं। कृतज्ञताज्ञापन करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मंगल है। जिसने अनेक उपकारों से उपकृत किया है उसके प्रति कृतज्ञ होना और किए को जानना, अनुस्मरण करना महान् गुणधर्म है। भगवान् बुद्ध ने कहा है कि इस संसार में दो पुद्गल लोक में दुर्लभ हैं - पूर्वकारी तथा कृतज्ञकृतवेदी १. सु. नि. परामभसुत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only, www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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