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________________ बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा ३३ संयुत्तनिकाय के अप्पमादसुत्त में अप्रमाद के गुणों का विशद वर्णन मिलता है। अप्रमाद ही एक धर्म है जो दृष्टधर्म तथा सम्परायिक (अनागत) का समधिग्रहण कर वर्तमान रहता है। जैसे जंगल के समस्त जीवों के पैर हस्तिपद में समा जाते है और हस्तिपद उनमें अग्र कहा जाता है क्योंकि यह उनमें सबसे बड़ा है। उसी प्रकार अप्रमाद एक धर्म है जो दृष्टधर्म तथा सम्परायिक दोनों का समधिग्रहण कर अधिष्ठित रहता है। पण्डितलोग पुण्यक्रियाओं में अप्रमाद की प्रशंसा करते है। अप्रमादी व्यक्ति दृष्टधर्म तथा सम्परायिक दोनों अर्थों का समधिग्रहण कर अधिष्ठित रहता है अप्पमादं पसंसन्ति पुञ्जकिरियासु पण्डितो । अप्पमत्तो उभो अत्थो अभिगण्हाति पण्डिता ।। कुशल धर्मों में अप्रमाद यही एक धर्म बहुत उपकारक है। धम्मपद के अप्पमादवग्ग में अप्रमाद के महत्त्व का निरूपण विशेष रूप से मिलता है अप्पमादो अमत्तपदं पमादो मच्चुनो पदं । अप्पमत्ता न मीयन्ति ये पमत्ता यथा मता ।। एवं विशेषतो अत्वा अप्पादम्हि पण्डिता । अप्पमादे पमोदन्ति अरियानं गोचरे रता ।। ते झायिनो साततिका निच्चं दल्हपरक्कमा । फुसन्ति धीरा निब्बानं योगक्खेमनुत्तरं ।। उट्ठानवतो सतिमतो सुचिकम्मस्स निसम्मकारिनो । सञतस्स धम्मजीविनो अप्पमत्तस्स यसोभिवड्डति ।। इस प्रकार अप्रमाद कुशल धर्मों में सर्वश्रेष्ठ और बहुउपकारी होने के कारण उत्तम मङ्गल है क्योंकि जो अप्रमादी होता है वह अनुत्तर योगक्षेत्र को प्राप्त करता है। (४) आदर और विनम्रता (गारवो चा निवातो ति) को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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