SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ श्रमणविद्या-३ आता है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सम्बन्धियों को धर्माचरण में नियोजित कर उसे सन्मार्गगामी बनाता है और समुन्नत आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करने का सुअवसर प्रदान करता है। सम्बन्धियों को सहयोग प्रदान करना पुण्यात्मक कार्य है जो व्यक्ति के चरित्र को परमोदात्त बनाता है। जो ज्ञातिजन, दीन, दरिद्र, असहाय तथा निर्धन हैं, उन्हें यथाकाल सहयोग प्रदान करने से वे समृद्ध एवं विप्रसन्न होते हैं तथा सहयोग प्रदान करने वाले को वे अपने आशीर्वचनों से उपकृत करते. हैं। इस प्रकार आतिसङ्गह (ज्ञातिसंग्रह) उत्तममङ्गल है, जो अपरिमित्त आनन्द का कारण है तथा इहलोक तथा परलोक में फलदायी है। (७) अनवज्जकमन्त अर्थात् दोषरहित कर्म अनवद्यकर्म को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मङ्गल कहा है। अनवद्य कर्म में उपोसथ, सामाजिक सेवा, उद्यानआराम लगाना, वृक्ष लगाना, सेतु बनाना, कूपनिर्माण करना आदि आते हैं। उपोसथ (उपवसथ) का अर्थ है-बिना भोजन के रहना 'उपवसन्ति सीलेन वा अनसनेन वा उपेतो हुत्वा वसन्तीति उपोसथो' उपोसथ शोभन नैतिक आचरण के लिए अनिवार्य है। समीप बैठना, भिक्षुसंघ का एकचित्त होकर धर्मोपदेश करना, धार्मिक कार्य के लिए संघ के भिक्षुओं का एकत्र होना या शुद्ध मन से एकसाथ बैठना ही उपोसथ है। शरीर और चित्त के विशोधन के लिए महीने की कुछ विशिष्ट तिथियों इसके लिए निर्धारित की गयी हैं-अष्टमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा। इससे संघ में एकता, समता तथा बन्धुता की भावना बढ़ती है। उपोसथ में रहने वालों को हिंसा, चोरी, झूठ, मद्यपान तथा काममिथ्याचार अब्रह्मचर्य से सर्वथा विरत रहना चाहिए। मालाधारण गन्धविलेपन आदि का वर्जन करना तथा पृथ्वी पर सोना चाहिए-इसे अष्टांगिक उपोसथ कहते हैं। अष्टांगिक उपोसथ की सोलहवीं कला को भी मणि, वैदूर्य आदि नहीं प्राप्त कर पाते हैं। इसलिए जो शीलवान् नर-नारी अष्टांगों से समुपेत होकर उपोसथब्रत धारण करते हैं, वे विप्रसन्न हो स्वर्ग को प्राप्त करते हैं पाणं न हाने न चादिनमादिये, मुसा न भासे न च मज्जपो सिया । अब्रह्मचरिया विरमेय्य मेथुना, रत्तिं न भुञ्जेय्य विकालभोजनं । १. धम्मिकसूत्त, सुत्तनिपात पृ१००। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy