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________________ (१२) समीचीन नहीं है। विस्तार हेतु उनके द्वारा प्रस्तुत तर्क दीघनिकाय-अट्ठकथा की टीका की भूमिका में द्रष्टव्य हैं। आचरिय धम्मपाल ने सीहळदीप (श्रीलंका) के महाविहार में निश्चित रूप से अध्ययन अवश्य किया था, किन्तु उन्होंने अपनी रचनाएँ भी वहीं लिखीं, इस सम्बन्ध में अन्तिम रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि पेतवत्थुअट्ठकथा के निदान में स्पष्ट रूप से उनके द्वारा कहा गया है कि महाविहार की परम्परा के अनुसार ही इस ग्रन्थ की व्याख्या को वे प्रस्तुत कर रहे है । बुद्धघोषाचार्य के सम्बन्ध में भी हमें यह ज्ञात है कि थेरवाद सम्बन्धी व्याख्याएँ और अट्ठकथाएँ श्रीलंका के ही महाविहार में प्राप्त थीं और वहाँ के भिक्षु पठनपाठन में उनका व्यवहार करते थे। भारत में उनका सर्वथा अभाव था तथा वहाँ विद्यमान उन अट्ठकथाओं को मागध-भाषा में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से ही वे श्रीलंका गये थे, जिससे सभी के लिए वे सुलभ हो सकें। इसी प्रकार आचरिय धम्मपाल ने भी महाविहार की परम्परा से प्राप्त इन व्याख्याओं एवं अट्ठकथाओं का अध्ययन किया था। स्वत: तमिल होने के कारण तमिल में विद्यमान अट्ठकथाओं के अध्ययन-कार्य में भी उन्हें सौविध्य तो था ही। खुद्दकनिकाय के उन ग्रन्थों पर इन्होंने अट्ठकथाएँ लिखीं, जिन्हें बुद्धघोषाचार्य ने छोड़ दिया था। इनके अतिरिक्त बुद्धघोष द्वारा अन्य निकायों पर प्रस्तुत अट्ठकथाओं पर लीनत्थपकासिनी अथवा लीनत्थवण्णना नामक टीकाएँ धम्मपाल द्वारा लिखी गयीं। श्री भरतसिंह उपाध्याय ने अपने 'पालि साहित्य का इतिहास' नामक ग्रन्थ में जो यह लिखा है कि इनकी रचनाओं में मात्र खुद्दकनिकाय के ग्रन्थों पर प्रस्तुत परमत्थदीपनी नामक अट्ठकथा ही प्राप्त है तथा शेष में से कुछ भी प्राप्त नहीं है - यह कथन नितान्त असमीचीन है। दीघनिकाय-अट्ठकथा पर लीनत्थवण्णना नामक टीका रोमनाक्षरों में पालि टेक्स्ट सोसायटी, लन्दन, द्वारा तीन भागों में प्रकाशित हो चुकी है, जिसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। इसे हम गौरवमयी टीका की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं। विसुद्धिमग्ग-महाटीका परमत्थमञ्जसा का भी मूल के साथ तीन भागों में प्रकाशन सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से हो चुका है तथा खुद्दकनिकाय के ग्रन्थों पर इनके द्वारा ६-७. दीघनिकाय-अट्ठकथा-टीका, भाग १, भूमिका, पृ० ३७-४८, रोमन संस्करण, लन्दन, १९७०। ८. दि पालि लिट्रेचर आफ सीलोन, पृ० ११३, सीलोन, १९५८। ९. पालि साहित्य का इतिहास, पृ० ५३१, इलाहबाद, संवत् २००८। १०. सन् १९६९-१९६२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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