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________________ (११) मललसेकर ने अपनी ‘डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स' में अभिधम्ममूलटीका के रचयिता आनन्दाचरिय को चुल्लधम्मपाल का गुरु स्वीकार दिया है। इसे मानते हुए ही पू० सद्धातिस्स जी ने अपना उपर्युक्त मत रखा है। उनका कथन है कि विसुद्धिमग्ग-महटीका के निगमन (कोलोफोन) में धम्मपाल ने कहा है कि सित्थगामपरिवेण निवासी विशुद्ध शीलवाले दाठानाग थेर के अनुरोध पर ही यह टीका उनके द्वारा लिखी गयी है। चूलवंस के अनुसार इस परिवेण का निर्माण सम्राट् सेन चतुर्थ (ईस्वी सन् ९५४-९५६) द्वारा उस स्थान पर किया गया था, जहाँ अपने राज्यारोहण के पूर्व वे भिक्ष-रूप में रहते थे। उनके उत्तराधिकारी राजा महिन्द चतुर्थ (ईस्वी सन् ९५६-९६२) ने थेर दाठानाग को नियुक्त किया था.... इस प्रकार विसुद्धिमग्गमहाटीका के रचयिता का समय यही है। इसके विपरीत आचरिय धम्मपाल काञ्चीपुर के निवासी थे और दक्षिण भारत के नागपट्टन में स्थित बदरतित्थविहार में निवास करते हुए उन्होंने अपना लेखनकार्य किया तथा बादवाले धम्मपाल सिंहली भिक्ष थे, ऐसा ज्ञात होता है और इन्होंने अपना लेखनकार्य सीहलद्वीप (श्रीलंका में) किया। यदि यह सब सत्य है तो विसुद्धिमग्गमहाटीका के जिस लेखक ने इसे दसवीं सदी में लिखा, उन्हीं ने दीघ, मज्झिम तथा संयुक्तनिकाय की अट्ठकथाओं पर भी टीकाओं का प्रणयन किया। मूलटीकाकार आनन्दाचरिय के ज्येष्ठ शिष्य तथा सच्चसङ्केप के रचयिता चुल्लंधम्मपाल ही ये धम्मपाल हो सकते हैं। इसका उत्तर तर्कपूर्ण रीति से दीघनिकायट्ठकथाटीका की भूमिका में इसकी सम्पादिका लिलि डे सिल्वा ने देते हुए अन्त में यह कहा है कि चुल्लधम्मपाल को उपर्युक्त बड़ी टीकाओं का प्रणेता मानने पर यह कठिनाई प्रस्तुत होती है कि उन्हें तब चुल्ल (छोटे) शब्द से क्यों अभिहित किया गया । वास्तव में तो उन्हें चुल्लधम्मपाल न कह कर महाधम्मपाल कहना चाहिए। दीघनिकायट्ठकथाटीका में विस्तार जानने हेत् विद्धिमग्गमहाटीका को भी देखने के लिए कहा गया है। इसके अलावा उन्होंने अपने पक्ष में और भी तर्क प्रस्तुत करते हुए उपर्युक्त रचनाओं का प्रणेता आचरिय धम्मपाल को ही माना है, जो बुद्धदत्त एवं बुद्धघोष की परम्परा में बुद्धघोष में पश्चात् आविर्भूत हुए हैं। सित्थगामपिरवेण वाले तर्क पर लिलि डे सिल्वा का विचार यह है कि यह तथा काञ्चीपुर आदि स्थान मद्रास प्रेसिडेन्सी में ही इर्द-गिर्द स्थित हैं और इसके बल पर विसुद्धिमग्गमहाटीकादि को दसवीं सदी में लिखा जाना सिद्ध करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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