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________________ शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान १९९ महावीर और गौतम गणधर के बाद यह पहला ही अवसर था, जबकि ज्ञानाभ्यासियों को तत्त्वचिन्तन की एक व्यवस्थित दिशा मिली। यही कारण है कि दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान् महावीर और गौतम गणधर के बाद आचार्य कुन्दकुन्द का नाम युगप्रतिष्ठापक के रूप में बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ लिया जाता है और युगों-युगों तक वे इस रूप में (हम सभी के बीच) जीवित और प्रतिष्ठित रहेंगे। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के व्याख्याकार आचार्य अमृतचंद्र, आ. जयसेन, श्रुतसागरसूरि, कनडी वृत्तिकार अध्यात्मी बालचन्द्र, पं. बनारसीदास, पांडे राजमल्ल, पं. जयचन्द्रजी छावड़ा आदि तथा बीसवीं-शती के अनेक मनीषियों का हम उपकार कभी नहीं भूल सकते, जिन्होंने कुन्दकुन्द के साहित्य का गहन चिन्तन, अवगाहन एवं स्वानुभव करके उन द्वारा विवेचित तत्त्वज्ञान को हम लोगों तक सरल रूप में पहुँचाया, ताकि हम और हमारी भावी पीढ़ी आत्म-कल्याण के द्वारा इस जीवन को सफल बना सके। ७. आचार्य शिवार्य ईसा की प्रथमशती के ही आचार्य शिवार्य का नाम शौरसेनी प्राकृत साहित्य के विकास में महनीय योगदान के लिए परम आदर के साथ लिया जाता है। यापनीय परम्परा के प्रमुख आचार्य शिवार्य का दूसरा नाम शिवकोटि भी प्रसिद्ध है। यद्यपि इन्होंने अपनी एक मात्र कृति भगवती आराधना के अन्त में अपनी गुरु-परम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है अज्जजिणणंदिगणि- सव्वगुत्तगणि अज्जमित्तणंदीणं । अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च ।।२१५९ ।। पुवायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराधणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ।।२१६० ।। छदुमत्थदाए एत्थ दु जं बद्धं होज्ज पवयणविरुद्धं । सोधेतु सुगीदत्था पवयणवच्छलदाए दु ।।२१६१ ।। आराधणा भगवदी एवं भत्तीए वण्णिदा संती । संघस्स सिवजस्स स समाधिवरमुत्तमं देउ ।। अर्थात् आर्य जिननन्दिगणि, आर्य सर्वगप्तगणि और आर्य मित्रनन्दि के पादमूल में बैठकर सम्यक् प्रकार से सूत्र और अर्थ को जानकर तथा पूर्वाचार्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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