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________________ १६६ श्रमणविद्या- ३ होने के कारण वह सम्यक् एकान्त है, मिथ्यैकान्त नहीं । मिथ्यैकान्त तो अन्य धर्मों का निराकरण करके केवल एक धर्म को सिद्ध करता है । अनेकान्त मूलतः मैत्री का वैचारिक सिद्धान्त है। विरोध अस्तित्व का सार्वभौम नियम है। ऐसा कोई भी अस्तित्व नहीं है जिसमें विरोधी युगल एक साथ न रहते हों। एक भाषा में अस्तित्व को विरोधी युगलों का समवाय कहा जा सकता है। अनेकान्त ने इस सत्य का दर्शन किया। विरोधी युगलों के सह अस्तित्व को भाषा अथवा परिभाषा दी उसमें रहे हुए समन्वय में सूत्र खोजे । अनेकान्त जैनदर्शन की व्याख्या सूत्र बन गया । अनेकान्त को समझे बिना जैनदर्शन को नहीं समझा जा सकता । आचार्य अमृतचन्द लिखते हैं २ नैकान्तसङ्गतदृशा स्वयमेव वस्तु, तत्वव्यवस्थितिमिति प्रविलोकयन्तः । स्याद्वाद् शुद्धिमधिकामधिगम्य संतो, ३ ज्ञानी भवन्ति जिन नीति मलंघयन्तः ।। अर्थात् सज्जन पुरुष अनेकान्तयुक्त अपनी दृष्टि से वस्तु की यथार्थ व्यवस्था को स्वयं ही देखते हुए तथा स्याद्वाद रूप अनेकान्त की विशुद्धि को अधिकाधिक प्राप्त करके जैन मार्ग को स्वीकार कर ज्ञानी बनते हैं । उपर्युक्त तथ्य की विशेष व्याख्या में जैन जगत् के लब्ध प्रतिष्ठ मनीषी श्री पं. जगन्मोहनलाल सिद्धान्त शास्त्री ने प्रश्नोत्तरों के माध्यम से अनेकान्त व्यवस्था का हार्द स्पष्ट किया है जो इस प्रकार है Jain Education International प्रश्न --- - अनेकान्तदृष्टि जैनी नीति हो सकती है तथापि वही सत्य है ऐसा कैसे जाना जाय । समाधान - जैसा वस्तु का स्वभाव है, उसे ही जैनी दृष्टि देखती है अतः वही सत्य है ऐसा स्वीकार करना योग्य है। १. अनेकान्तोप्यनेकान्तः प्रमाणनय साधनः । अनेकान्तः प्रमाणाते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ।। स्वयम्भूस्तोत्र पृ. १३९ । २. प्रो. उदयचन्द जैन स्वयम्भूस्तोत्र तत्वप्रदीपिका पृ. १४० । ३. आचार्य महाप्रज्ञः जैनदर्शन और अनेकान्त पृ. १ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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