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________________ ७८ श्रमणविद्या-३ सत्संगति कथय किं न करोति पुंसाम्' के अनुसार सत्संगति जीवन को परमोदात्त बनाती है। धम्मपद में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि साथ चलने वाला कोई ज्ञानी अथवा अनुभवी साथी न मिले तो जैसे पराजित राजा विजित राष्ट्र को छोड़कर अकेला ही अरण्य में धूमता है, वैसे ही अकेला विचरण करें। 'नो ते लभेथ निपकं सहायं, सद्धिं चरं साधुविहारी धीरं । राजाव रटुं विजितं पहाय, एको चरे मातङ्गर व नागो' ।। भगवान् बुद्ध ने कर्म एवं कर्मफल के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। मनुष्य अपने कर्मों का दायाद है, कर्मयोनि, कर्म प्रतिशरण है। कर्म से ही मनुष्य प्रणीत अथवा हीन हो सकता है। मनुष्य कर्म से उसी प्रकार बँधा है, जैसे रथचक्र अरों से बँधा रहता है। ___कम्मनिबन्धना सत्ता रथस्साणीव जायतो। __ अत: पुण्यकर्मों का संचय और पापकर्मों का परिहार वांछनीय है। "सभी पापों का न करना, कायिक, वाचसिक तथा मानसिक पापों से सर्वथा विरत रहना, सभी कुशल एवं अनवद्य कर्मों का सम्पादन करना तथा अपने चित्त को विशोधन करते रहना” यही बुद्धशासन है। सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा । सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धानसासनं ।।। सहनशीलता और क्षमाशीलता परम तप है-“खन्ती परमं तपोतितिक्खा" बौद्धधर्म आचरण की शुद्धता पर बल देता है। लोभ, द्वेष, मोहादि अकुशल कर्मों के त्याग से मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है। इस निर्मल मन से किये गये कुशल कर्मों से आचार की शुद्धता इष्ट है, अत: सत्य, धार्मिक आचरण धैर्य एवं त्याग का अनुशरण करने वाला मनुष्य शोक नहीं करता। १. ध.प. गाथा, सं. ३२९। साधुदस्सनमरियानं सन्निवासो सदा सुखो। अदस्सनेनबालानं निच्चमेव सुखी सिया।। बालसंगतिचारी च दीघमद्धानसोचति। दुक्खो बालेहि संवासो अमित्तेनेव सब्बदा।। ध.प. २०६,२०७। २. म.नि. ३,२८० ३. खु. १,३६८, अ.सा. पृ. १६४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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