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________________ बौद्धदर्शन में कालतत्त्व उपसंहार यदि वस्तुओं का तीनों कालों में सद्भाव माना जाएगा तो उनकी उत्पत्ति एवं विनाश सम्भव न होगा, अर्थात् वे नित्य होंगे। जो रूप, वेदना आदि धर्म वर्तमान हैं, उन्हीं में अर्थक्रियाकारित्व देखा जाता है। वर्तमान रूप में ही रूप का लक्षण याने प्रतिघात करना विद्यमान होता है। इसलिए वर्तमान की ही सत्ता है। जो धर्म अर्थक्रिया से शून्य है, उसकी स्वलक्षण सत्ता मानी नहीं जा सकती । अतीत अग्नि जलाने की अर्थक्रिया नहीं करती, अतः वह वस्तुतः अग्नि नहीं है। इसी तरह जल, घट आदि अन्य धर्मों के बारे में भी जानना चाहिए। यदि अतीत, अनागत धर्म अर्थक्रिया से युक्त होंगे तो वे वर्तमान ही हो जाएंगे । सभी धर्म प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं । जो प्रतीत्यसमुत्पन्न नहीं हैं अर्थात् निर्हेतुक हैं, उनकी सत्ता मानी नहीं जा सकती। यदि अनागत की सत्ता मानी जाएगी तो कुम्भकार की घट निर्माण की चेष्टा व्यर्थ होगी। संस्कृत धर्मों के सभी लक्षण वर्तमान में ही घटित होते हैं, अतः केवल वर्तमान ही सत् है । वर्तमान के आश्रय से अतीत, अनागत की प्रज्ञप्ति होती है, अत: उनकी प्रज्ञप्ति सत्ता है । पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण होता है । इसलिए भ्रान्ति से अतीत की सत्ता प्रतीत होती है। यही स्थिति अनागत की भी है। काल नामक पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। संस्कृत धर्मों की द्रव्यसत्ता कालिक दृष्टि से नहीं है। संस्कृत धर्मों के उत्पाद, स्थिति भङ्ग की अवस्थाओं में ही काल प्रज्ञप्त होता है। कुछ प्रज्ञप्तिसत् धर्म चित्तविप्रयुक्त संस्कारों में गृहीत होते हैं । फलतः वे संस्कार-स्कन्ध, धर्मायतन और धर्मधातु में संगृहीत होते हैं। काल भी एक धर्मायतन और धर्मधातु में संगृहीत होते हैं । काल भी एक प्रज्ञप्तिसत् धर्म है। काल संस्कृत का पर्यायवाची है । क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, आदि उसके व्यावहारिक भेद हैं। वर्तमान ही वस्तुसत् है । Jain Education International ७३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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