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________________ २४ . श्रमणविद्या-२ या बाह्य कष्टों को सहन करने की प्रवृत्ति को क्षान्तिसंवर कहा गया है। वीयं संवर के अन्तर्गत कामवितर्क जन्य संकल्प-विकल्पों के नियमन का विवेचन किया गया है। इस प्रकार पाँच प्रकार के संवर के द्वारा दुःख के मूलभूत कारणों को रोकने में सफल भिक्षु संवरशील के द्वारा निर्वाण की ओर उन्मुख होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संवर के द्वारा भिक्षु चार आर्य-सत्यों को जानकर निर्वाण के अष्टांगिक मार्ग में प्रवृत्त होता है। भगवान् बुद्ध ने विभिन्न प्रसंगों में संवर का विस्तार से विवेचन किया है । इससे संबर के महत्त्व का ज्ञान होता है । अर्थविकास की दृष्टि से उपर्युक्त विवेचन को देखने पर ज्ञात होता है कि जैन और बौद्ध परम्परा में संवर का जो अर्थ विकास हुआ, उसके लिए एक व्यापक शब्दावली निर्मित हो गई, जिसके आधार पर संवर को विभिन्न रूपों में विश्लेषित किया गया। इसप्रकार संवर अपने सामान्य अर्थ से आगे बढ़कर एक विराट अर्थ का बोधक पारिभाषिक शब्द बन गया, जिसे समझने के लिए विभिन्न परम्पराओं के भारतीय वाङ्मय का अनुशीलन करना अपेक्षित हो जाता है। बिना इसके संवर के वास्तविक रहस्य को नहीं समझा जा सकता। संकाय पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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