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________________ श्रमण परम्परा में संवर शुभास्रव के कारणों के अन्तर्गत जिस शब्दावली का विवेचन किया गया है उसे अशुभ आस्रव के संवर के रूप में विवेचित किया गया है। गुप्ति, समिति, परीषहजय तथा बाह्य चरित्र का जितना सम्बन्ध आत्मा के परिणामों से है उतना ही इन्द्रिय, मन, तथा शरीर से है। इसी आधार पर उनका आचारशास्त्रीय विवेचन किया गया। मन, वचन, और काय की प्रवृत्ति का नियमन गुप्ति के अन्तर्गत आता है। समितियाँ शरीर की प्रवृत्तियों के नियमन के लिए विवेचित की गईं हैं। परीषहजय तथा बाह्यचारित्र का सम्बन्ध भी मुख्य रूप से शारीरिक प्रवृत्तियों से है । शरीर के अन्तर्गत ही पंचेन्द्रियों का संवर बताया गया है । आचार शास्त्र की यह पारिभाषिक शब्दावली गृहस्थ और साधु के लिए अलग-अलग सोपानों का भी निर्धारण करती है। इसी के आधार पर गृहस्थ और साधु की आचारसंहिता का निर्माण हुआ है, जिसे श्रावकाचार तथा श्रमणाचार कहा गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में संवर का आध्यात्मिक और आचारशास्त्रीय विवेचन करके उसे श्रावक और साधु दोनों के जीवन से जोड़ा गया है। बौद्ध परम्परा में शील के अन्तर्गत संवर की व्याख्या की गई है। अभिधर्म के अन्तर्गत जो चार प्रकार के शील गिनाये गये हैं, उनमें एक संवरशील है। इससे ज्ञात होता है कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी संवर को परिभाषित करने का प्रयत्न किया गया है। संवरशील के पाँच भेदों से उसके स्वरूप पर विशेष प्रकाश पड़ता है। चूंकि बौद्ध परम्परा अनात्मवादी है, इसलिए इन्द्रिय, मन, और शरीर की विभिन्न प्रवृत्तियों के नियमन को संवर के अन्तर्गत विवेचित किया गया है। कायिक अव्यतिक्रम तथा वाचसिक अव्यतिक्रम जैनपरम्परा के आस्रव की परिभाषा की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। प्रातिमोक्षसंवर के द्वारा भिक्षु कर्त्तव्य और अकर्तव्य रूप शिक्षा को प्राप्त करके तदनुसार आचरण में प्रवृत्त होता है। तब वह स्मृतिसवर के द्वारा इन्द्रिय तथा मन की प्रवृत्तियों को संवृत करने लगता है। दुःखों के मूल स्रोत तृष्णा और उसके कारणों का ज्ञान प्रज्ञा से होता है और तब भिक्षु ज्ञानसंवर के द्वारा तृष्णा के कारणों का संवरण करने लगता है। क्षान्तिसंवर के अन्तर्गत शरीर को होने वाले विभिन्न प्रकार के कष्टों को सहन करने का वर्णन किया गया है, यह विवरण जैन परम्परा के परीषहजय से अत्यधिक साम्य रखता है। जिस प्रकार जैन परम्परा में विभिन्न प्रकार के अनुताप तथा उत्तोड़न सहन करने के लिए परीषहजय का विवेचन किया गया है उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में शरीर को होने वाले आन्तरिक सकाय पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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