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________________ श्रमण विद्या - २ एक अन्य स्थल पर भगवान् बुद्ध चुन्द को सम्बोधित करते हुए कहते हैंचुन्द ! मैं दृष्ट धार्मिक - इसी जन्म में – आस्रवों के संवर के ही लिए धर्मोपदेश नहीं करता, और न चुन्द ! केवल पर जन्म के आस्रवों के ही नाश के लिए। मैं दृष्ट धार्मिक और पारलौकिक दोनों ही आस्रवों के संवर और नाश के लिए धर्मोपदेश करता हूँ २० वर्णन करते हुए कहा प्रहाण- प्रधान, भावना अन्यत्र बौद्ध मन्तव्यों के प्रसंग में चार प्रधानों का गया है कि प्रधान चार प्रकार का होता है-संवर-प्रधान, तथा अनुरक्षणा प्रधान । संवर- प्रधान विषयक प्रश्न के उत्तर में बुद्ध कहते हैं। कि भिक्षु चक्षु से रूप को देखकर निमित्तग्राही नहीं होता, अनुव्यञ्जनग्राही नहीं होता, इसी प्रकार समस्त इन्द्रियों की रक्षा करता है, संयम शील होता है, इत्यादि । यह संवरप्रधान है।" संयुक्त निकाय में कुशलधर्म विषयक प्रश्न के उत्तर में बुद्ध कहते हैंभिक्षु ! तुम प्रातिमोक्ष संवर का पालन करते विहार करो, आचार गोचर से सम्पन्न हो, थोड़ी-सी बुराई में भय देखकर, शिक्षापदों को मानते हुए विहार करो, इसप्रकार तुम शील पर प्रतिष्ठित हो चार स्मृति प्रस्थानों की भावना कर सकोगे । ७ साकेत कालकाराम में विहार करते समय बुद्ध भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहते हैं भिक्षुओ ! यह श्रेष्ठ ब्रह्मचरिय जीवन जनता के सामने ढोंग करने, बात बनाने, लाभ, सत्कार और प्रशंसा प्राप्त करने, तथा वाद करने के लिए नहीं है, और इसलिए भी नहीं कि लोग मुझे जान लें । भिक्षुओ ! यह ब्रह्मचर्यं वास संवर, प्रहाण, भिक्खु इन्दियेसु गुत्तद्वारो होति । - दीघनिकाय १/२, धम्मसंगणी तथा पुग्गलपण्णत्त ४।७४ । न वो अहं चुन्द, दिट्ठधम्मिकानं येव आसवानं संवराय धम्मं देसेमि, न पनाहं, चुन्द, सम्परायिकानं येव आसवानं परिघाताय धम्म देसेनि । दिट्ठधम्मिकानं चेवाहं, चुन्द, आसवानं संवराय धम्मं देसेमि; सम्परायिकानं च आसवानं परिघाताय । -- दीघनिकाय ३ । ६ । ८६. चत्तारि पधानानि -संवरपधानं पहानपधानं भावनापधानं, अनुरक्खणापधानं । कतमश्वावसो, संवरपधानं ? इधावुसो, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुव्यञ्जनग्गाही । यत्वाधिकरणमेनं ..। दीघ० ३।१०। ८७. संयुक्त निकाय ४५।५ तथा इतिवृत्थक ३।४८ । ८५. संकाय पत्रिका - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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