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________________ श्रमण परम्परा में संवर १९ इस प्रकार यह पाँच तरह के संवर तथा जो पाप से भय खाने वाले कुलपुत्रों की सामने आई हुई पाप की चीजों से विरति है-इन सबको संवर-शील समझना चाहिए।८२ विनयपिटक चुल्लवग्ग में बड्ढलिच्छवी बुद्ध से कहता है कि भन्ते ! बाल (मूर्ख) सा, मूढ़सा, अकुशलसा हो मैंने जो अपराध किया है, जो मैंने आर्यदर्भ मल्लपुत्र को निमूल, शीलभ्रष्टता का दोष लगाया है, सो भन्ते, भगवान् भविष्य में संवर के लिए मेरे उस अपराध को अत्यय के तौर पर स्वीकार करें। इसके प्रत्युत्तर में बुद्ध कहते हैं-आवुस ! तुमने मूर्ख, मूढ़, अचतुर की तरह जो अपराध किया, जिसे तुम अपराध के तौर पर देखकर प्रतिकार करते हो, अतः हम स्वीकार करते हैं। आर्य विनय में यह बुद्धि है कि अपराध को अपराध के तौर पर देख कर धर्मानुसार उसका प्रतिकार करना और भविष्य में संवर के लिए प्रयत्नशील होना। दीघनिकाय सामञफलसुत में इन्द्रियसंवर के विषय में कहा है कि जो भिक्षु आंख से रूप को देख कर न उसके निमित्त को ग्रहण करता है और न अनुव्यञ्जित (आसक्त) होता है। जिस चक्षुइन्द्रिय के असंयमित विहरने से मनमें दौर्मनस्य, बुरे अकुशल धर्म चले आते हैं, उसके संवर के लिए यत्न करता है। चक्षुरिन्द्रिय की रक्षा करता है, चक्षुरिन्द्रिय को संवृत करता है। कान से शब्द सुनकर, नाक से गन्ध सूचकर, जिह्वा से रस का आस्वादन करके. काय से स्पर्श करके, मन से धर्मों को जानकर न उनके निमित्त (आकार) को ग्रहण करता है, और न ही उनमें अनव्यजित (आसक्त) होता है। वह इस प्रकार के आर्य इन्द्रियसंवर से युक्त हो अपने अन्दर परम सुख को प्राप्त करता है।४ ८२. विसुद्धिमग्ग १। ८३. चुल्लवग्ग ५।२।६ तथा :।२।३ । ८४. इध, महाराज, भिक्खु चक्खुना रू दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानु व्यञ्जनग्गाही। यत्वाधिकरणमेनं चक्खन्दियं असंबुतं विहरन्तं अभिज्झा दोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्यं, तस्स संवराय पटिपज्जिति, रक्खति चक्खुन्दियं, चवखुन्दिये संवरं आपज्जती। सोतेन सदं सुत्वा · पे .. घानेन गन्धं घायित्वा' 'पे... जिह्वाय रसं . सायित्वा · पे० · कायेन फोढुव्वं फुसित्वा पे... मनसा धम्मं विज्जाय न निमित्तग्गाही होति नानुव्यज्जनग्गाही । ............. .... 'सो इमिना अरियेन इन्दियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसुखं परिसंवेदेति । एवं खो, महाराज संकाय पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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