SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ कसायपाहुडसुत्तं आर्यमंक्षु और नागहस्ति आर्यमंक्षु और नागहस्ति का उल्लेख आचार्य गुणधर की तरह मात्र जयधवलाटीका और श्रुतावतार में मिलता है। दिगम्बर जैन परम्परा के अन्य साहित्य, शिखालेख या पट्टावलियों में इनका उल्लेख नहीं मिलता । आचार्य वीरसेन ने जयधवला टीका के प्रारम्भ में गुणधर, आर्यमंक्षु, नागहस्ति और यतिवृषभ का एक साथ निम्नप्रकार स्मरण किया है "गुणहरवयणविणिग्गयगाहाणत्थं वहारिओ सव्वो। जेणज्जमंखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥ जो अज्जमखुसीसी अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ॥२१ अर्थात् जिन आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने आचार्य गुणधर के मुखकमल से विनिर्गत गाथाओं के सर्व अर्थ को अवधारण किया, वे हमें वर प्रदान करें । जो आर्यमंक्षु के शिष्य हैं और नागहस्ति के अंतेवासी हैं, वृत्तिसूत्र के कर्ता वे यतिवृषभ मुझे वर प्रदान करें। इससे ज्ञात होता है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ति समकालीन थे और दोनों कसायपाहुड के महान वेत्ता थे। यतिवृषभ दोनों के शिष्य थे तथा उन्होंने दोनों के पास कसायपाहुड का ज्ञान प्राप्त किया था । जयधवलाकार ने दोनों को 'महावाचक' तथा 'खवण' या 'महाखवण' कहा है। चूर्णिकार ने अपने चूर्णिसूत्रों में कई विषयों के सम्बन्ध में दो उपदेशों का उल्लेख किया है और उनमें से एक उपदेश को 'पवाइज्जमाण' तथा दूसरे को 'अपवाइज्जमाण' कहा है। जयधवलाकार ने 'पवाइज्जमाण' का अर्थ 'सर्वाचार्यसम्मत तथा गुरुपरम्परा के क्रम से आया हुआ' किया है तथा नागहस्ति के उपदेश को 'पवाइज्जमाण' और आर्यमंक्षु के उपदेश को 'अपवाइज्जमाण' कहा है। दिगम्बर परम्परा में आर्यमंक्षु और नागहस्ति के विषय में अब तक मात्र यही सन्दर्भ उपलब्ध हुए हैं जो विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। श्वेताम्बर पट्टावलियों में आयमंगु तथा नागहस्ती नामक आचार्यों का उल्लेख मिलता है । नन्दिसूत्र की स्थविरावलि में इन दोनों आचार्यों का स्मरण बड़े आदर के साथ करते हुए आर्यमंगु को ज्ञान और दर्शन गुणों का प्रभावक तथा श्रुतसमुद्र का पारगामी लिखा है तथा नागहस्ति को कर्मप्रकृति का व्याख्यान करने वालों में प्रधान बताते हुए उनके वाचक वंश की वृद्धि की कामना की है।२२ २१. कसायपाहुड, भाग १, गाथा ७, ८ । २२. नन्दिसूत्र, गाथा २८, ३० । संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy