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________________ १३. जैन कर्म सिद्धान्त : बन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया को कम और अबन्धक कर्मों को अकर्म कहा जाता है। जैन विचारणा में कर्म और अकर्म .. के यथार्थ स्वरूप की विवेचना सर्व प्रथम आचारांग एव सूत्रकृतांग में मिलती है। सूत्र- . कृतांग में कहा गया है कि कुछ कर्म को वर्य (पुरुषार्थ) •कहते हैं, कुछ अकर्म को वार्य (पुरुषार्थ) कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि कुछ विचारकों की दृष्टि में सक्रियता यही पुरुषार्थ या नैतिकता है जबकि दूसरे विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है । इस सम्बन्ध में महावीर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए, यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि कर्म का अर्थ शरोरादि की चेष्टा एवं अकर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा का अभाव ऐसा नहीं मानना चाहिए । वे अत्यन्त सीमित शब्दों में कहते हैं प्रमाद कर्म है अप्रमाद अकर्म है । प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अर्म कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अर्म निस्क्रियता की अवस्था नहों, वह तो सतत् जागरुकता है। अपमत्त अवस्था या आत्म जाग्रति की दशा में सक्रियता भी अर्म होता है जबकि प्रमत्त दशा या आत्म-जाग्रते के अभाव में निष्क्रिाता भी कर्म (बन्धन) बन जाती है । वस्तुतः किसोक्रिया का बन्धकत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं वरन् उसके पीछे रहे हुए कषाय भावों एवं राग-द्वेष की स्थि ते पर निर्भर है । जैा दर्शन के अनुसार राग-द्वेष एवं कषाय जो कि अत्मा को प्रमत दशा है किसी क्रिया को कर्म बना देते हैं। लेकिन कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म अकर्म बन जाता है । महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो आस्रव या बन्धन कारक क्रिपाएँ हैं, वे हो अनासक्त एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती है । इस प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म आने बाह्य स्वरूप की अपेक्षा कर्ता के विवेक और मनोवृत्त पर निर्भर होते हैं । जैन वि वारणा में बन्धकस्य को दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में बाँटा गया है । १. इर्यापथिक क्रियाएँ (अकर्म) और २. साम्परायि क्रियाएँ (कम या विक्रम)। इपिथिक क्रियाएँ निष्काम वीतराग दृष्टि सम्पन्न क्रियाएँ हैं जो बन्धन कारक नहीं है, जब के साम्रायिक क्रियाएँ आसन व्यक्ति की क्रियाएँ हैं जो बन्धन कारक है । संक्षे। में वे समस्त क्रियाएं जो आस्रा एवं बन्धन का कारग है, कर्म है और वे समस्त क्रियाएँ जो संघर और निर्जरा का हेतु है अकर्म है । जैन दृष्टि में अर्म या इपिथिक कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं , मोह रहित मात्र कर्तव्य एवं शरीर निर्वाह के लिए किया जाने वा कर्म । जबकि कर्म का . अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह सहित क्रियाएँ । जैन दर्शन के अनुसार जो क्रिया पापार राग-' द्वेष और मोह से युक्त होता है, बन्धा में डालता है और इसलिए वह कर्म है और जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और मोह से रहित होकर कर्तव्य निर्वाड या शो निर्वाह के लिए किया जाता है वह बन्धन का कारण नहीं है अतः अर्म है। जिहें जैन दर्शन में इर्यापथिक क्रियाएँ या अर्म कहा गया है उन्हें बोद्ध परम्परा अनुपचित अव्याकृत या अकृष्ण -शुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें जैन परम्परा साम्परायेक क्रियाएँ या कर्म कहती है उन्हें बौद्ध परम्परा उपचित कर्म या वृष्ण-अशुक्ल कर्म कहती है । शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर : . - जैन विचारणा में शुभ एवं अशुभ अथवा मंगल अमंगल की वास्तविकता स्वीकार .. की गई है । उतराध्ययन सूत्र में नव तत्त्व माने गये हैं जिसमें पुण्य और पाप को स्वतन्त्र ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014027
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSeminar & Articles
File Size18 MB
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