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________________ सागरमल जैन समता नहीं है । वे कर्म परम्परा का प्रवाह बनाए रखने में असमर्थ होते हैं और समय की परिपक्वता के साथ ही अपना फल देकर सहज ही अलग हो जाते हैं। कर्म का बन्धकत्व और अबन्धकत्व यद्यपि जैन दृष्टि से 'कर्मगा बध्यते जन्तुः' की उक्ति ठीक है लेकिन जैनाचार दर्शन में सभी कर्म अथवा क्रियाएँ सम्मन रूप से बन्धनकारक नहीं है । उसमें दो प्रकार के कर्म माने गये हैं, एक को कर्म कहा गया है दूसरे को अर्म, समस्त साम्मरायिक क्रियाएँ कर्म की श्रेणी में आती हैं और ईर्यापथिक क्रियाएँ अकम की श्रेणी में आती हैं । यदि नैतिक दर्शन की दृष्टि से विचार करें तो प्रथम प्रकार के कर्म ही नैतिकता के क्षेत्र में आते है । और दूसरे प्रकार के कर्म नैतिकता के क्षेत्र से परे हैं । उन्हें अतिनैतिक कहा जा सकता है । लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में आने वाले सभी कर्म भी एक समान नहीं होते हैं उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं, जैन परिभाषा में इन्हें क्रमशः पुण्य कर्म और पाप कर्म कहा जाता है । इस प्रकार जैन विचारणा के अनुसार कम तीन प्रकार के होते है१. ईपिथिक कम (अम), २. पुण्य कर्म और ३. पाप कम' । बौद्ध विचारणा में भी तीन प्रकार के कर्म माने गये हैं । १. अव्याकृत या अकृष्ण अशुक्ल कम', २. कुशल या शुक्ल कर्म और ३. अकुशल या कृष्णकम । गीता भी तीन प्रकार के कर्म बताती है१. अकर्म, २. कम (कुशल कम) और ३. विकर्म (अकुशल कर्म) । जैन विचारणा का ईपिथिक कर्म बौद्ध दर्शन का अव्याकृत या अकृष्ण-अकुशल कर्म तथा गीता का अकर्म है। इसी प्रकार जैन विचारणा का पुण्य कर्म बौद्ध दर्शन का कुशल (शुक्ल) कर्म तथा गीता का सकाम सात्त्विक कर्म है । जैन विचारणा का पाप कर्म बौद्ध दर्शन का अकुशल (कृष्ण) कर्म तथा गीता का विकर्म है। पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से भी कर्म तीन प्रकार के होते हैं- १. अतिनैतिक, २. नैतिक, ३. अनैतिक । जैन विचारणा का ईपिथिक कर्म अतिनैतिक कर्म है, पुण्य कर्म नैतिक कर्म है और पाप कर्म अनैतिक कर्म है । गीता का अर्म अतिनैतिक, शुभ कर्म नैतिक और विकर्म अनैतिक है । बौद्ध विचारणा में अनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक कर्म को क्रमशः अकुशल, कुशल और अयाकृत कर्म अथवा अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहा *गया है। इन्हें निम्न तुलनात्मक तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है : . . . कर्म पाश्चात्य आचारदर्शन जैन बौद्ध गीता १. शुद्ध __ अतिनैतिक कर्म ईपिथिक कर्म अव्याकृत कर्म अकर्म २. शुभ नैतिक कर्म पुण्य कर्म कुशल शुक्ल) कर्म कर्म (कुशल कर्म) ३. अशुभ अनैतिक कर्म पाप कर्म ‘अकुशल (कृष्ण) कर्म विकर्म जैन दर्शन में कर्म अकर्म विचार : कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उस पर दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है - १. उसकी बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर और २. उसके शुभाशुभता के आधार पर । कर्म के बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं कि कुछ कर्म बन्धन में डालते हैं, जबकि कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं । बन्धक कर्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014027
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSeminar & Articles
File Size18 MB
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