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________________ सागरमल जैन (४) अपवर्तन, (५) सत्ता, (६) उदय, (७) उदीरणा, (८) उपशमन, (९) निधत्ति और (१०) निकाचना ।" . () बन्ध- कषाय एवं योग के फलस्वरूप कर्म परमाणुओं का आत्म प्रदेशों से जो सम्बन्ध होता है, उसे बन्ध कहा जाता है ।'' बन्धन के स्वरूप, कारक, प्रकार आदि की विस्तृत चर्चा अन्यत्र की गई है अतः उसे वहाँ देखा जा सकता है । (२) संक्रमण- एक कर्म के अनेक अवान्तर भेद हैं और जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार कर्म का एक भेद अपने सजातीय दूसरे भेद में बदल सकता है । यह अवान्तर कर्म प्रकृतियों का अदल बदल संक्रमण कहलाता है । संक्रमण वह प्रक्रिया है जिसमें आत्मा पूर्व बद्ध आवान्तर कर्मों की प्रकृति, समयावधि, तीव्रता एवं परिमाण को परिवर्तित करता है। संक्रमण में आत्मा पूर्व बद्ध कर्म प्रकृति का नवीन कर्म प्रकृति का बन्ध करते समय नवीन कर्म प्रकृति में उसका रूपान्तरण कर सकता है । उदाहरणार्थ पूर्व में बद्ध दुःखद संवेदन रूप" असातावेदनीय कर्म का नवीन सातावेदनीय कर्म का बन्ध करते समय ही सातावेदनीय कर्म प्रकृति के साथ मिलाकर उसका सातावेदनीय कर्म में संक्रमण किया जा सकता है । यद्यपि दर्शनमोह कर्म की तीन प्रकृतियों मिथ्यात्वमोह, सम्यक्त्व मोह और मिश्रमोह में नवीन बन्ध के अभाव में भी संक्रमण सम्भव होता है क्योंकि सम्यक्त्व मोह एवं मिश्रमोह का बन्ध नहीं होता है. वे अवस्थाएँ मिथ्यात्वमोह कर्म के शुद्धिकरण से होती है। यह ध्यान में रखना चाहिए संक्रमण कर्मो के आवान्तर भेदों में ही होता है, मूल भेदों में नहीं होता है अर्थात् ज्ञाना.. वरणीय कर्म का आयुष्कर्म में संक्रमण नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार कुछ आवान्तर कर्म भी ऐसे हैं जिनका रूपान्तर नहीं किया जा सकता । जैसे दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्म का रूपान्तर नहीं होता । इसी प्रकार कोई नरकायु के बन्ध को मनुष्य आयु . के बन्ध में नहीं बदल सकता । नैतिक दृष्टि में संक्रमण को धारणा की दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं- एक तो यह है कि संक्रमण की क्षमता केवल आत्मा की पवित्रता के साथ ही बढ़ती जाती है । जो पवित्र नहीं होता है उसकी आत्मशक्ति प्रकट नहीं होती है और उसमें कर्म संक्रमण की क्षमता भी नहीं होती है और वह परिस्थितियों (कर्मो) का दास होता है । लेकिन पवित्र आत्माएं परिस्थितियों की दास न होकर उनकी स्वामी बन जाती है। इस प्रकार संक्रमण की प्रक्रिया आत्मा के स्वातंत्र्य और दासता को व्यक्ति की नैतिक प्रगति पर अधिष्ठित करती है। दूसरे संक्रमण की धारणा भापत्राद के स्थान पर पुरुषार्थवाद को सबल बनाती है। (३) उत्कर्षण अथवा उद्वर्तन-आत्मा से कर्म परमाणुओं के बद्ध होने के समय पर जो कषायिक तरतमता होती है उसी के अनुसार बन्धन के समय कर्म की स्थिति तथा तीव्रता का निश्चय होता है । किन्तु जैन कम सिद्धान्त के अनुसार आत्मा नवोन बन्ध करते समय पूर्वबद्ध कर्मो की काल मर्यादा और तीव्रता को बढ़ा भी सकता है । यही कर्म परमाणुओं की कालमर्यादा और तीव्रता को बढ़ाने की क्रिया उत्कर्षण कही जाती है। (४) अपवर्तन- जिस प्रकार नवीन बन्ध के समय पूर्व बद्ध कर्मो की कालमर्यादा (स्थिति) और तीव्रता (अनुभाग) को बढ़ाया जा सकता है उसी प्रकार उसे कम भी किया जा सकता है और यह कम करने की क्रिया अपवर्तन कहलाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014027
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSeminar & Articles
File Size18 MB
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