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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : वन्धन और मुक्ति की प्रक्रिया उत्तर देते हुए कहा है कि जैसे - स्वर्ण के वड़ में रहने पर भी जंग नहीं खाता जबकि लोहा जंग खा जाता है इसी प्रकार शुद्धात्मा कर्म परमाणुओं के मध्य रहते हुए भी उनके निमित्त से विकारी नहीं बनता जबकि अशुद्ध आत्मा विकारी बन जाता है । जड़ कर्म परमाणु उसी आत्मा को विकारो बना सकते जो पूर्व में राग द्वेष आदि से अशुद्ध हैं ।" वस्तुतः आत्मा जब भौतिक शरीर से युक्त होता है तभी तक भौतिक कर्म परमाणु अथवा भौतिक तथ्य उसे प्रभावित कर सकते हैं । कर्म शरीर के रूप में रहे हुए कर्म परमाणु ही बाह्य जगत के कर्म परमाणुओं का आकर्षण कर सकते हैं। चूंकि मुक्तावस्था में आत्मा अशरीरी होता है अत: उस अवस्था में कर्म परमाणुओं की उपस्थिति में भी उसे बन्धन में आने की कोई सम्भावना नहीं रहती है । कर्म और विपाक को परम्परा : राग द्वेष आदि की शुभाशुभ वृत्तियां ही भाव कर्म के रूप में आत्मा की अवस्था विशेष ही है । भाव कर्म की उपस्थिति में ही द्रव्य कर्म का आत्मा के द्वारा ग्रहण किया जाता है । भाव कर्म के निमित्त से द्रव्य कर्म का आस्रव (आगमन) होता रहता है और यही द्रव्य कर्म समय विशेष पर भाव कर्म का कारण बन जाता है इस प्रकार कर्म प्रवाह चलता रहता है और यह कर्म प्रवाह ही संसार है । कर्म और विपाक की परम्परा से यह संसार चक्र प्रवर्तित होता रहा है । कर्म से ही पुनर्जन्म होता है और यह संसार प्रवर्तित होता है ।१२ अतः यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कब से है, अथवा कर्म और विपाक की परंपरा का प्रारम्भ कब हुआ । यदि हम इसे सादि मानते हैं तो यह मानना पड़ेगा कि किसी काल विशेष में आत्मा बद्ध हुआ और उसके पहले मुक्त था, फिर उसे बन्धन में आने का क्या कारण ? यदि मुक्तात्मा को बन्धन में आने की सम्भा. वना मानी जावे तो मुक्ति का मूल्य अधिक नहीं रह पाता । दूसरी और यदि इसे अनादि माना जावे तो जो अनादि है वह अनन्त भी होगा और इस अवस्था में मुक्ति की कोई सम्भावना ही नहीं रह पावेगी ? कर्म के अनादि और सादि होने के सम्बन्ध में जैन दृष्टि : जैन दार्शनिकोंने इस समस्या के समाधान के लिए एक सापेक्षिक उत्तर दिया है उनका कहना है कि कर्म परम्परा कर्म विशेष की अपेक्षा से सादि और सान्त है और प्रवाह की दृष्टि से अनादि और अनन्त है, लेकिन कर्म परम्परा का यह प्रवाह भी व्यक्ति विशेष की दृष्टि से अनादि है और अनन्त नहीं है । उसे अनन्त नहीं मानने का कारण यह है कि कर्म विशेष के रूप में तो सादि है और यदि व्यक्ति नवीन कर्मों का उत्पादन रोक सके तो वह परम्परा अनन्त नहीं रह सकती । जैन दार्शनिकों के अनुसार राग द्वेष रूपी कर्म बीज के भुन जाने पर कर्म प्राह को परम्परा समाप्त हो जाती है । कर्म परम्परा के सम्बन्ध में यही एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसके आधार पर बन्धन का अनादित्व, मुक्ति से अनावृत्ति और मुक्त की सम्भावना की समुचित व्याख्या हो सकती है । कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ : जैन विचारणा में कर्मों को विभिन्न अवस्थाओं पर भी गहराई से विचार हुआ है । प्रमुख रूप से कर्मो की दस अवस्थाएँ मानी गई हैं- (१) बन्ध (२) संक्रमण (३) उत्कर्षण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014027
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages304
LanguageEnglish, Hindi, Gujarati
ClassificationSeminar & Articles
File Size18 MB
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