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________________ ७५ जैन शासक अमोघवर्ष प्रथम जैन धर्म को संरक्षण देने के साथ ही साथ अमोघवर्ष प्रथम ने स्वयं तथा उसके अन्य राजकीय पदाधिकारियों ने भी दूसरे धर्मों के प्रति पूर्ण सद्भाव रखा । अभिलेखों में प्राप्त उसके देवता सम्बन्धी विश्वास, देवताओं की प्रशस्तियों एवं किये गये दानों आदि से यह ज्ञात होता है कि राज्य शासन अपनी धार्मिक नीति में अत्यधिक उदार था। अमोघवर्ष प्रथम ने लोक उपद्रव को शांत करने के लिए महालक्ष्मी की पूजा की थी जिसमें उसने अपने शरीर का एक अंग ही अर्पित कर दिया था ।२४ उसकी राजमुद्रा पर गरुड़ मुद्रा का स्पष्ट उल्लेख भी प्राप्त होता है ।२५ अभिलेखों के प्रारम्भ में प्राप्त देव प्रशस्तियों तथा किये गये दानों के उल्लेखों से तत्युगीन धार्मिक सहिष्णुता पर विशेष प्रकाश पड़ता है। अमोघवर्ष प्रथम के कोन्नूर अभिलेख में जिनेन्द्र की प्रशस्ति के साथ ही साथ विष्णु की भी प्रशस्ति की गई है। वीर नारायण के रूप में ऐसा जान पड़ता है कि अमोघवर्ष प्रथम विष्णु के अवतार के रूप में माना जाता था।२७ इस सन्दर्भ में उसकी लक्ष्मीवल्लभ तथा श्रीवल्लभ उपाधियाँ उल्लेख्य हैं। अमोघवर्ष प्रथम एवं उसके सामन्त शासकों के कई अभिलेखों में विष्णु एवं शिव की साथ-साथ प्रशस्ति कही गई है ।२८ अमोघवर्ष प्रथम के समय के नीलगुड अभिलेख में विष्णु एवं शिव के साथ-साथ ब्रह्मा, इन्द्र एवं पार्वती का भी उल्लेख हुआ है ।२९ गुजरात शाखा के राष्ट्रकूट शासक दन्तिवर्मा के गुजरात अभिलेख में बुद्ध को नमस्कार के साथ विष्णु एवं शिव की प्रशस्ति भी प्राप्त है। यह अभिलेख बौद्धों को दिये गये दान से सम्बन्धित है। एलोरा के दशावतार नामक शैल लयण के निर्माण में संभवतः अमोघवर्ष प्रथम ने रुचि ली थी।' इस लयण में अंकित इस शासक के अभिलेख का आरम्भ ओम् नमः शिवाय से किया गया है ।३२ अमोघवर्ष प्रथम के काल के मन्त्रवाडि एवं शिग्गौन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सामन्त शासकों ने सूर्य एवं शिव मन्दिरों के लिए दान दिये ।33 अमोघवर्ष प्रथम ने इस प्रकार न केवल प्रजावत्सलता, सांस्कृतिक अभिरुचि एवं धार्मिक सहिष्णुता का एक मानदण्ड स्थापित किया बल्कि शासकों की परम्परा में एक जैन शासक के रूप में महान् योगदान दिया । पाद टिप्पणियाँ १. गोविन्द तृतीय के तोखंडे अभिलेख से उसके शासनकाल की अन्तिम ज्ञात तिथि १४ दिसम्बर ८१२ ई. (एपिग्राफिया इण्डिका, भाग ३, पृ० ५४, पंक्ति १-२) एवं अमोघवर्ष प्रथम के सिरुर अभिलेख में उल्लिखित उसके शासन के ५२वें वर्ष की तिथि ८६६ ई. के आधार पर गणना के अनुसार। परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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