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________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन नामक शैव लयण में अमोघवर्ष प्रथम का एक अभिलेख अंकित है । १४ इस लेख प्राप्ति के आधार पर दशावतार लयण के निर्माण में अमोघवर्ष प्रथम के सहयोग की संभावना की जा सकती है । एलोरा के जैन लयणों का निर्माण लगभग ९वीं शताब्दी में हुआ था । " यद्यपि हमें कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं प्राप्त है किन्तु अमोघवर्ष प्रथम का इन लयण निर्माणों से असम्बद्ध होना नहीं जान पड़ता । १६ ७४ संजान अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष प्रथम गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय की तुलना में गुरुतर चरित्र तथा दान देने वाला था । १७ इन दोनों शासकों के व्यक्तित्व में काफी समानता देखी जा सकती है । दोनों ने ही राजनीतिक परेशानियों के साथ शासन प्रारम्भ किये और क्रमशः अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना कर विद्रोहों का दमन एवं विजय अभियान किये। अमोघवर्षं प्रथम के प्रारम्भिक दिनों की परेशानियाँ कुछ भिन्न प्रकार की एवं गुरुतर थीं। दोनों ही शासक प्रजावत्सल एवं धार्मिक थे और साहित्य तथा कला के अभिवर्द्धक एवं संरक्षक थे। संजान अभिलेख के रचयिता ने अमोघवर्ष प्रथम की तुलना में चन्द्रगुप्त द्वितीय को उचित ही प्रस्तुत किया है । राष्ट्रकूट शासक के गुरुतर व्यक्तित्व का उल्लेख भी उचित ही है । राष्ट्रकूट इतिहास में अमोघवर्ष प्रथम का गुरुतर व्यक्तित्व सदा ही मान्य रहा । गुणधर रचित कसायपाहुड की वीरसेन कृत जयधवला टीका की प्रशस्ति में भी गुर्जर नरेन्द्र के रूप में अमोघवर्ष प्रथम की कीर्ति को चन्द्रमा के समान स्वच्छ तथा उसके मध्य गुप्त नरेश की कीर्ति को मच्छर के समान कहा गया है । " जैन मतावलम्बी अमोघवर्ष प्रथम के शासनकाल में जैन धर्म को पूर्ण संरक्षण प्राप्त था । अपने समय के जैन आचार्यों का उसने पूर्ण सम्मान एवं संरक्षण किया । आचार्य जिनसेन को उसने अपना गुरु माना था । जिनसेन के शिष्य गुणभद्र को उसने अपने पुत्र कृष्ण द्वितीय के गुरु के रूप में नियुक्त किया था । अमोघवर्ष प्रथम के काल ही जिनसेन एवं गुणभद्र कृत आदिपुराण, गुणधर कृत कसायपाहुड कीं वीरसेन कृत जयधवला टीका एवं शाकटायन द्वारा अपने व्याकरण की अमोघवृत्ति नामक टीका रची गई । अमोघवर्ष प्रथम के सामन्तों में बंकेय जैन धर्मावलम्बी था ।" सौन्दत्ती के सामन्त भी जैन थे । कान्नूर अभिलेख में अमोघवर्ष प्रथम को जैन धर्मावलम्बियों के लिए दान देता हुआ उल्लिखित किया गया है । २१ एलोरा की जैन गुफाओं के निर्माण में भी सम्भवतः अमोघवर्ष प्रथम का योगदान रहा । २२ जैन परम्परा में भी इस शासक को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । बनवासी के कुछ जैन विहार उसे कई धार्मिक नियमों के प्रतिस्थापक के रूप में मानते हैं । २३ परिसंवाद -४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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