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________________ ३२२ जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययने आधार बनाकर रचा गया चरित-साहित्य शोध की अनेकानेक संभाक्नाओं से परिपूर्ण है। अन्तः एवं बाह्य परिवेशों के आधार पर तुलनात्मक शोध की दिशा महत्त्वपूर्ण है। स्वयंभूदेव एवं पुष्पदन्त के जीवन-दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, पुष्पदन्त एवं रइधू के काव्य-सिद्धान्तों की तुलना जैसे अन्तः तुलनात्मक शोधविषयों के साथ-साथ स्वयंभू प्रणीत रिटुणेमिचरिउ एवं सूरसागर की तुलना, पुष्पदन्त एवं तुलसी के काव्यादर्शों की तुलना, अपभ्रंश राम-कृष्ण काव्य एवं हिन्दी-रामकृष्ण काव्य की मूल चेतना की तुलना जैसे अनेक शोध विषय अछूते पड़े हैं। वस्तुतः अपभ्रंश की चरित्रकाव्य-परम्परा का विशद् प्रभाव आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी-काव्यों पर गहरा है, अतः यहाँ अनन्त संभावनाएं भरी पड़ी हैं। सर्वाधिक अछूती दिशा है काव्य शास्त्रीय शोध की, चूंकि संस्कृत की टूटी काव्यशास्त्रीय परम्परा को इन ग्रंथों में ही ढूंढ़ कर हिन्दी-काव्यशास्त्र का आधार खोजा जा सकता है। अपभ्रंश के चरित-काव्यों का ध्वनि-सिद्धान्त, अलंकार-सिद्धान्त, वक्रोक्तिसिद्धान्त एवं रस-सिद्धान्त के आधार पर विशिष्ट अनुशीलन भी शोध की सर्वथा नवीन दिशा हो सकती है। इन चरित-काव्यों में लोकतत्त्व प्रचुर परिमाण में है, अतः लोक-संकृति, लोक-विश्वास, लोक-धर्म आदि शोध-बिन्दुओं पर भी सफलतापूर्वक अनुसंधाता चल सकता है। चरित्र-चित्रण शिल्प एवं मनोविज्ञान के आधार पर भी इनका स्वतंत्र एवं तुलनात्मक शोध संभावित है। (ग) जैन-प्रबंध काव्यधारा-प्रबन्ध-शैली जैन कवियों की विशिष्ट शैली रही है, जिसके अन्तर्गत अपभ्रंश के प्रेमाख्यानक काव्य एवं खण्डकाव्य आते हैं। अपभ्रंश की प्रेमाख्यान-परम्परा हिन्दी के मध्यकाल तक चली है और लौकिकता के समावेश से यह लोकप्रिय भी हुई। इस परम्परा में विलास और श्रृंगार की प्रधानता निश्चय ही जैन धर्म में व्याप्त निषेधों की प्रतिक्रिया का मनोवैज्ञानिक प्रतिफलन रहा होगा। मेरे मतानुसार यह सर्वथा अनूठा शोध विषय रहेगा कि धर्म, आचार एवं विधिनिषेधों के कठोरतम प्रतिबन्धों में शृगार कैसे फूट पड़ा और अक्षुण्ण बना रहा । प्रेमाख्यान-परम्पर। में नायक-नायिका के निर्द्वन्द्व प्रेम-चित्रण में परम्परित काव्य-व्यापारों एवं कवि-समयों का प्रयोग विवेच्य है। अब तक भी जैन प्रेमाख्यानक काव्यों का शोधपरक मूल्यांकन शेष ही है, जहाँ मनोवैज्ञानिक अनुशीलन के साथसाथ काव्य-रूढ़ियों के स्वरूप एवं प्रयोग जैसे शास्त्रीय विषयों पर भी उच्चस्तरीय परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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