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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-विद्या विषयक अनुसंधान की संभावनाएं (२) काल-निर्णय सम्बन्धी शोध --आगम-साहित्य की प्राचीनता पर निरन्तर प्रश्न-चिह्न लगते रहे हैं, अतः यह शोध की एक नई दिशा है। किस 'वाचना' में कितने आगम संग्रहीत हुए, इसका निर्णय आगमों के तुलनात्मक भाषा-वैज्ञानिक शोध द्वारा करना होगा और साथ ही, आगमों के प्रामाणिक, पूर्ण एवं आलोचनात्मकसंस्करण तैयार कराना भी जरूरी है। ( ३ ) लोकतात्त्विक शोध-आगम-साहित्य के शोध की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिशा 'लोकतात्त्विक अनुशीलन' ही मेरी दृष्टि से है। आगम-साहित्य 'लोक-कथाओं का अजस्र स्रोत' है और लोकतत्त्व के कारण ही यह लोकग्राही बना होगा, मेरी यह हढ़ मान्यता है। प्रत्येक आगम ग्रन्थ का "लोक-तत्त्व" की दृष्टि से मूल्यांकन विशिष्ट शोध दिशा होगी, यद्यपि यह व्यय एवं श्रमसाध्य कार्य होगा। "जैन-आगमों की लोक कथाएँ" तथा "आगमों में अभिव्यक्त लोक-धर्म एवं लोक-संस्कृति" आदि अनेक विषय इस दृष्टि से शोधार्थियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। (ii) आगम-टीका-साहित्य-सम्पूर्ण टीका-साहित्य को भी उपर्युक्त आधारों पर भाषाशास्त्रीय, काल-निर्णय सम्बन्धी, वस्तुवर्णन विषयक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों से शोध की कसौटी पर कसा जाना चाहिए। जैनागमों पर उपलब्ध विपुल व्याख्यात्मक साहित्य, जिसमें नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी एवं टीका साहित्य है, स्वतन्त्र महत्त्व का है, जिसका अर्थ-वैज्ञानिक, शैली-वैज्ञानिक एवं लोकतात्त्विक शोधपरक अनुशीलन जैन-विद्याओं एवं जैन-दर्शन के विकास में नए कीर्तिमान स्थापित करेगा, यह मेरा निश्चित अभिमत है। आगमेतर-जैन-साहित्य-जैन-सिद्धान्तों एवं दार्शनिक तत्त्वज्ञान को निरूपित करने के लिए जैन-चिन्तकों एवं कवियों ने विपुल और विविधमुखी साहित्य रचा है, जो आज भी जैन-भण्डारों में भरा पड़ा है। वस्तुतः आगमेतर-जैन-साहित्य की विपुल संपदा को उजागर करने का महत्तर दायित्व जैनविद्याओं के अनुसंधाताओं को पूर्ण करना है। इस संपूर्ण साहित्य को मैं निम्न रूपों में रखकर शोध-संभावनाएं देखूगा-- (१) जैन-तत्त्व-चिन्तन से संबद्ध धार्मिक साहित्य (२) लौकिक साहित्य १. डा० जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत-साहित्य का इतिहास पृ० १९४/१९५ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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