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________________ ३१८ जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन में रखना इसी 'उदारता' का पुष्ट प्रमाण है। जैन-मत के दिगम्बर एवं श्वेताम्बरदोनों ही सम्प्रदायों में विपुल साहित्य रचा गया । दिगम्बर-मत के आचार्यों ने शौर. सेनी में तथा श्वेताम्बर मत वालों ने महाराष्ट्री में रचना की है।' अपभ्रंश में उपलब्ध जैन-साहित्य को अध्ययन की सुविधा हेतु निम्न रूप से वर्गीकृत किया जा सकता है : (१) आगम साहित्य --(i) मूल आगम-साहित्य (ii) आगम-टीका-साहित्य (२) आगमेतर साहित्य-(i) जैन-धर्म के सिद्धान्तों से संबद्ध धार्मिक साहित्य (ii) लौकिक साहित्य (iii) व्याकरण, छन्द-शास्त्र आदि से संबद्ध साहित्य (१) आगम साहित्य जैन-आगम साहित्य में प्राचीन जैन-परम्पराएं, अनुश्रुतियाँ, लोककथाएं, रीतिरिवाज, धर्मोपदेश आदि समाहित हैं, जिनके शोधपरक गम्भीर अध्ययन से अनेक बिखरी कड़ियों को जोड़ा जा सकता है। आगम-साहित्य में छिपा जैन-वास्तुशास्त्र, संगीत, नाट्य, प्राणिविज्ञान तथा वनस्पतिविज्ञान आदि हम शोध की कसौटी पर यदि कस सकें, तो ज्ञान के नए क्षितिज खुलेंगे "छेदसूत्र" तो आगम-साहित्य का प्राचीनतम महाशास्त्र ही है, जिसमें श्रमण-संस्कृति एवं श्रमणाचार का तात्त्विक रूप निहित है। मूल आगम-साहित्य के शोध की मुख्य सम्भावित दिशाएँ मेरे मतानुसार निम्न हो सकती हैं (१) भाषाशास्त्रीय शोध भाषाशास्त्रीय शोध से जैनागमों की मूलभूत प्रवृत्ति जानी जा सकती है और विभिन्न पाठान्तरों की समस्या का समाधान किया जा सकता है । भाषा की समरूपता. शब्द-प्रयोग, ध्वनि-परिवर्तन एवं अर्थ-विज्ञान की दृष्टि से आगम-साहित्य का शोधपरक मूल्यांकन हमारे युग की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हो सकती है। १. डा० रामसिंह तोमर : प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य, पृ० ५। २. डा० जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत-साहित्य का इतिहास, पृ० ४३ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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