SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन जैन और ब्राह्मण धर्मों से सम्बंधित अनेक बातों की आपेक्षिक प्राचीनता को निश्चित करना सम्भव नहीं है तथापि जैनधर्म को यथार्थवादिता एवं बुद्धिवादिता एक सामान्य दृष्टा का भी ध्यान आकर्षित करने से नहीं चूकती ? अन्त में डॉ. हर्मन जेकोबी के शब्दों में 'मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूँ कि जिन धर्म अन्य सब धर्मों से सर्वथा विलक्षण एवं स्वतन्त्र मौलिक धर्म है और इसी कारण प्राचीन भारत के दार्शनिक चिन्तन तथा धार्मिक जीवन का अध्ययन करने के लिए उसका प्रभूत महत्त्व है ।' इस प्रकार, भारत की प्राचीन श्रमण संस्कृति तथा अध्यात्म प्रधान महान् मागध धर्म के सजीव, सतेज प्रतिनिधि के रूप में जैन-धर्म जैन दर्शन और जैन संस्कृति का भारतीय धर्मों, दर्शनों और संस्कृतियों में ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व के दार्शनिक चिन्तन, धार्मिक इतिहास एवं सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है । दूसरी शती ईस्वी के आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में 'महावीर प्रभृति श्रमण तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित एवं प्रचारित यह सर्वोदय तीर्थ, मानवमात्र का उन्नायक एवं कल्याणकर्ता है ।' परिसंवाद-४ Jain Education International ज्योति निकुंज, चारबाग लखनऊ, उत्तर प्रदेश । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy