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________________ जैन धर्म और संस्कृति उसका निरसन करता है । अनेकान्तिक मनोवृत्ति ही विश्व में शान्ति, मैत्री, सहयोग एवं सद्भाव स्थापित करने में समर्थ हो सकती है । इतिहास साक्षी है कि जैन धर्मानुयायियों ने जिनमें बड़े बड़े शक्तिशाली सम्राट एवं नरेश भी हुए हैं, और कहीं-कहीं बहुभाग जनसाधारण भी रहे हैं, कभी भी किसी अन्य धर्म पर अत्याचार नहीं किया, यद्यपि उसे स्वयं कतिपय विरोधियों के नृशंस अत्याचारों का कई बार शिकार होना पड़ा । वस्तुतः शान्तिप्रियता एवं सहिष्णुता जैनधर्म की महान विशेषताएँ रही हैं और उनका मुख्य कारण सप्तभंगी न्यायाश्रित अनेकान्तात्मक स्याद्वाद है । यह सिद्धान्त चार्वाक के थोथे यथार्थवाद और नैयायिकों के लचर आदर्शवाद, दोनों से ही बचकर चला है। प्रो. ध्रुव के अनुसार 'स्याद्वाद ऐसा काल्पनिक सिद्धान्त मात्र नहीं है जिसका प्रणयन किसी तत्त्विक समस्या का हल करने के लिए किया गया हो, अपितु उसका सम्बन्ध मनुष्य के वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक जीवन से है । स्याद्वाद में तो विरोधी स्वरों का ऐसा सुन्दर समन्वय हुआ है कि उससे एक पूर्ण समन्वित स्वरलहरी गूंज उठती है ।" और डॉ. ए. एन. उपाध्ये का कथन है कि “स्याद्वाद का लक्ष्य आधुनिक दार्शनिक चिन्तन के क्षेत्र के सर्वथा अनुरूप है । स्याद्वाद का लक्ष्य वैयक्तिक दृष्टियों का एकीकरण, समीकरण, समन्वय तथा संश्लेषण करके उन्हें एक व्यवहारिक पूर्णता प्रदान करना है । यह दार्शनिक को एक सावभौमिक दृष्टि प्रदान करता है और उसे यह निश्चय करा देता है कि सत्य के ऊपर अपनी-अपनी परिधि में सीमित भिन्न नामधारी मत-मतान्तरों में से किसी का भी एकाधिपत्य नहीं है । धर्म मुमुक्षु को यह एक ऐसी बौद्धिक सहिष्णुता प्रदान करता है जो उस अहिंसा सिद्धान्त के सर्वथा अनुरूप है जिसकी पुष्टि जैनधर्म सहस्रों वर्षों से निरन्तर करता चला आ रहा है। जहां तक भारतीय दार्शनिक चिन्तन में जैन दर्शन के स्थान का प्रश्न है, महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा का कहना है कि 'निसंदेह कतिपय सिद्धान्तों में जैन दर्शन का बौद्ध, वेदांत, सांख्य- न्याय और वैशेषिक दर्शनों के साथ साम्य है, किन्तु इस तथ्य से जैन दर्शन का स्वतन्त्र अस्तित्व, उदय और विकास असिद्ध नहीं होते । यदि कतिपय भारतीय दर्शनों के साथ उसका कुछ सादृश्य भी है तो साथ ही उसकी अपनी भी निराली विशेषताएँ तथा उन दर्शनों से स्पष्ट मौलिक भेद भी हैं ।' प्रो. जी. सत्यनारायण मूर्ति के शब्दों में 'जैन धर्म के कुछ सिद्धान्त उसके अपने विशिष्ट तथा निराले हैं और वे उसपर एक स्वतन्त्र स्वाधीन अस्तित्व की छाप छोड़ते हैं । चिन्ता - हरण चक्रवर्ती का कथन है कि 'यद्यपि अपने वर्तमान ज्ञान के आधार पर हमारे लिए परिसंवाद -४ Jain Education International १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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