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________________ प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ २८९ घड़ शा बीहइ बोहै कीधौ हउँ कोसीसा कंत हूं पापी हेकलौ आदि । इसी तरह अपभ्रंश के कांइ (क्या) का प्रयोग राजस्थानी में अधिक होता है। काई छ (ढूंढारी) कंइ है (मेवाड़ी), कंइ हुओ (मारवाड़ी) आदि प्रयोग द्रष्टव्य हैं । राजस्थानी भाषा की अनेक धातुएँ प्राकृत एवं अपभ्रंश से ग्रहीत हैं। उनमें बहुत थोड़ा परिवर्तन हुआ है । तुलनात्मक दृष्टि से कुछ क्रियाएँ द्रष्टव्य हैं यथाप्राकृत राजस्थानी अर्थ घडइ बनाता है जांच जांचे मांगता है खण्डइ खांडै तोड़ता है धारइ धारता है डरता है पूरा करता है किदो किया होसइ होसी होगा छोल्लिज्जइ छोले छीलता है इसी प्रकार राजस्थानी भाषा में ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं, जो थोड़े से ध्वनि परिवर्तन के साथ प्राकृत व अपभ्रंश से ग्रहण कर लिये गये हैं। गुजराती गुजराती और राजस्थानी में घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इन पर मध्य देश की शौरसेनी प्राकृत व अपभ्रंश का अधिक प्रभाव है। श्री एल० पी० टेसीटरी ने गुजराती और राजस्थानी के स्वरूप आदि पर विशेष प्रकाश डाला है तथा उन पर प्राकृत के तत्त्वों को स्पष्ट किया है। प्राकृत और गुजराती के कुछ समान शब्द इस प्रकार हैं। प्राकृत अर्थ अंगोहलि अंघोल शरीर का स्नान उत्थल्ल-पत्थल्ला उथल-पाथल उलट-फेर ओइल्ल ओलबु ओढ़नी उण्डा उण्डा गहरा काठु बदनाम, बुरा गहिल्ल गहिल मन्दबुद्धि (घेलु) कूकड़ी मुर्गी गुजराती कटु कुक्कडी परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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