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________________ २८८ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन भलीभाँति ज्ञात होता है कि कभी लोकभाषाओं ने देशी शब्दों को साहित्य के सिंहासन पर बैठाया तो कभी परिष्कृत शब्दों को भी लोक मानस के अनुकूल उन्होंने गढ़ा है। ध्वनि विकास के द्वारा ऐसे शब्द किसी भी भाषा में प्रयुक्त होते रहते हैं। पश्चिमी भाषाए” आधूनिक आर्य भाषाओं और बोलियों के वर्गीकरण तथा उनके प्राचीन रूप के अध्ययन अनुसन्धान में डॉ० ग्रियर्सन और डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी के मत उल्लेखनीय माने जाते हैं । अन्य विद्वानों ने भी इस विषय पर कार्य किया है। पश्चिमी भारत की आधुनिक भाषाओं में सिन्धी, पंजाबी, राजस्थानी और गुजराती प्रमुख हैं। सिन्ध के ब्राचड़ प्रदेश में बोली जाने वाली अपभ्रंश से सिन्धी भाषा का विकास माना जाता है। कैकय प्रदेश की अपभ्रंश से पश्चिमी पंजाबी ( लंहदी, मुल्तानी ) का तथा टक्क अपभ्रंश से पूर्वी पंजाबी भाषा का विकास स्वीकार किया गया है। किन्तु अभी तक सिन्धी एवं पंजाबी भाषाओं का प्राकृत अपभ्रंश के साथ विशेष अध्ययन प्रस्तत नहीं किया गया है। प्राकृत ग्रन्थों में इन देशों के व्यापारियों का पर्याप्त उल्लेख मिलता है। उद्योतनसूरि ने तो कुवलयमालाकहा में सैन्धव और टक्क देश के व्यापारियों की भाषा के शब्दों की बानगी भी प्रस्तुत की है। राजस्थानी जिसे आज राजस्थानी कहा जाता है वह भाषा नागर अपभ्रंश से उत्पन्न मानी जाती है, जो मध्यकाल में पश्चिमोत्तर भारत की कथ्यभाषा थी। राजस्थानी भाषा के क्षेत्र और विविधता को ध्यान में रखकर इसकी जनक भाषा को सौराष्ट्र अपभ्रंश तथा गुर्जरी अपभ्रंश भी कहा जाता है। क्योंकि राजस्थानी का सम्बन्ध बहत समय तक गुजराती भाषा से बना रहा है। राजस्थानी भाषा के अन्तर्गत जो बोलियाँ हैंहाड़ौती, ढूंढारी, मेवाड़ी और मारवाड़ी आदि उन सब पर प्राकृत एवं अपभ्रंश का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । ध्वनिपरिवर्तन और व्याकरण दोनों की दृष्टि से राजस्थानी मध्ययुगीन भाषाओं से प्रभावित है। राजस्थानी के संज्ञा रूपों की रचना पर प्राकृत का सीधा प्रभाव है। प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के एक वचन के अकार को ओकार होता है। राजस्थानी में भी यही प्रवृत्ति उपलब्ध है । यथा-घोड़ो, छोरो आदि । प्राकृत अपभ्रंश की भाँति राजस्थान में भी विभक्तियों की संख्या कम हो गयी है। प्राकृत के सर्वनामों की संख्या अपभ्रंश में कम हो गयी थी। अपभ्रंश से बहुत से सर्वनाम राजस्थान में यथावत् अपना लिये गये हैं। प्राकृत और अपभ्रंश का हं, हउं (मैं) राजस्थानी में खूब प्रचलित है। यथा-- परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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