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________________ जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। यहाँ हम वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्वों के अन्वेषण तक ही अपने को सीमित रखते हैं। प्राकृत भाषा भाषाविदों ने प्रकृति अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न लोकभाषा को प्राकृत भाषा का नाम दिया है। अतः प्राकृत भाषा का अर्थ हुआ लोगों का स्वाभाविक वचन-व्यापार । इसी स्वाभाविकता के कारण प्राकृत कुछ विशिष्ट वर्ग की भाषा न होकर जन-सामान्य की भाषा बनी रही है। साहित्य की दृष्टि से महावीर के बारह आगम ग्रन्थ आदि जिस भाषा में प्राक् कृत अर्थात् सर्वप्रथम लिखे गये हों, उस भाषा को भी प्राकृत नाम दिया गया है। यह प्राकृत भाषा केवल दर्शन ग्रन्थों तक ही सीमित नहीं है, अपितु लगभग दो हजार वर्षों की अवधि में इसमें भारतीय साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में ग्रन्थ लिखे गये हैं। इस विशाल साहित्य को ध्यान में रखकर प्राकृत वैयाकरणों एवं आधुनिक विद्वानों ने प्राकृत भाषा की कई विशेषताएं रेखांकित की हैं। भारोपीय परिवार को भाषाओं के अध्ययन करने को जो विशेष पद्धति भाषाविदों ने प्रचलित की है, उसे भाषा-विज्ञान के नाम से जाना जाता है। भारोपीय परिवार की भाषाओं का सम्बन्ध, स्वरूप एवं विकास की दृष्टि से इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रचलित सशक्त भाषा संस्कृत के साथ रहा है। अतः संस्कृत के अतिरिक्त अन्यभाषाओं का अध्ययन वैयाकरणों और आधुनिक भाषाविदों ने संस्कृत भाषा की प्रवृत्तियों को मूल में रखकर किया है। यहाँ तक की अवेस्ता, जर्मन, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं की प्रवृत्तियों का ज्ञान कराने के लिए भी संस्कृत को मूल में रखा गया है।११ अध्ययन की दृष्टि से इनके मूल में संस्कृत होते हुए भी जिस प्रकार ये सभी भाषाएँ आज स्वतंत्र भाषाएँ मानी जाती हैं, उसी प्रकार प्राकृत भी एक स्वतंत्र विकसित भाषा है, भले ही उसकी प्रवृत्तियों का अध्ययन आज तक संस्कृत को माध्यम बनाकर किया गया हो। __ यही स्थिति वैदिक भाषा के अध्ययन की रही है। उसकी सभी प्रवृत्तियों को संस्कृत में खोजने का प्रयत्ल किया गया है, जबकि उसकी अनेक प्रवृत्तियाँ प्राकृत भाषा से मिलती-जुलती हैं। वैदिक भाषा के पूर्व प्रचलित जनभाषा प्राकृत के स्वरूप को प्रकट करने वाले साहित्य का अभाव होने से यह कह पाना आज कठिन है कि वैदिक भाषा में जो प्राकृत के तत्त्व प्राप्त होते हैं वे मौलिक हैं अथवा वैदिक भाषा से परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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