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________________ वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व २६५ संरचना पंजाब, अथवा उदीच्य प्रदेश में हुई मानी जाती है। अतः वैदिक भाषा में उदीच्य विभाषा का अधिक प्रभाव रहा और प्राकृत भाषाओं का साहित्य अथवा प्रयोग पूर्वी प्रदेशों में अधिक रहा इस कारण उसमें प्राच्या विभाषा के तत्त्व विकसित हए हैं। किन्तु दोनों विभाषाएँ समकालीन होने से एक दूसरे को प्रभावित करती रही हैं, इसी कारण से वैदिक भाषा और प्राकृत में कई समानताएँ प्राप्त होती हैं । वैदिक भाषा में मूर्धन्य ध्वनियों का प्रयोग, न के स्थान पर ण का प्रयोग, विभक्ति रूपों आदि में वैकल्पिक रूपों का प्रयोग, क्रियाओं में सीमित लकारों का प्रयोग आदि विशेषताएँ उसमें प्राकृत तत्त्वोंके मिश्रण को प्रकट करती हैं। इन्हीं प्रवृतियों के कारण वैदिक भाषा के साथ-साथ जनभाषा प्राकृत का अस्तित्व स्वयमेव सिद्ध होता है । बाकरनागल कहते हैं कि प्राकृतों का अस्तित्व निश्चित रूप से वैदिक बोलियों के साथ-साथ वर्तमान था, इन्हीं प्राकृतों से परवर्ती साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ है । डा० विंटरनित्ज भी यही कहते हैं कि संस्कृत के विकास के साथ ही साथ और समानान्तर बोलचाल की आर्यभाषाओं का अधिक स्वाभाविक विकास भी चल रहा था, जिन्हें हम मध्ययुगी भारतीय भाषाएं ( पाली, प्राकृत, अपभ्रंश ) कहते हैं। वे सीधे संस्कृत की उपज नहीं हैं, अपितु प्राचीन लोक भाषाओं ( वैदिक भाषा ) से अनुबद्ध हैं। वैदिक भाषा के उपरान्त जब पाणिनी ने अपने समय की प्रायः समस्त भाषाओं को एकरूपता में बाँधने के लिए भाषा का संस्कार कर संस्कृत भाषा का व्याकरण बनाया तो उन्होंने भी अपने पूर्ववर्ती वैदिक भाषा और प्राकृत की समान प्रवृत्तियों का संकेत अपने ग्रन्थ में किया है। वैदिक-प्रक्रिया में प्रायः इसी प्रकार के शब्दों का कथन है। बहुलं छंदसि आदि कहकर पाणिनी वैदिक भाषा के वैकल्पिक प्रयोगों का संकेत करते हैं।' जो प्राकृत की एक सामान्य विशेषता है। प्राचीन भारतीय भाषाओं की इन प्रवृत्तियों को संस्कृत में निबद्ध कर देने के उपरान्त भी तत्कालीन साहित्य में जनभाषा के तत्त्व प्रयुक्त होते रहे हैं । यद्यपि उनकी मात्रा वैदिक भाषा की अपेक्षा कुछ कम है। ब्राह्मण, उपनिषद्, रामायण एवं महाभारत के प्रणयन में भी विशुद्ध रूप से संस्कारित भाषा के नियमों का पालन नहीं हुआ है । चूंकि इनका सम्बन्ध लोक जीवन से था। अतः यत्र-तत्र लोकभाषा के तत्त्व भी इन काव्यों में प्रयुक्त हुए हैं। महाकाव्य युग के बाद तो पालो-प्राकृत के प्रयोग लोक और साहित्य दोनों में होने लगते हैं। जिसका उदाहरण त्रिपिटक, आगम एवं प्राकृत का शिलालेखी साहित्य है । अतः वैदिक युग से लेकर महावीर और बुद्ध के युग तक प्राकृत भाषा का विकास और प्राकृत का समकालीन साहित्य तथा संस्कृति से सम्बन्ध आदि विषयों पर गहराई से अध्ययन परिसंवाद-४ २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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