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________________ २६० जैन विद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन ( वि. सं. ११२५ ) में श्वेताम्बर जैन विद्वान् नमिसाधु ने एक पद्य ' की व्याख्या के अन्तर्गत लिखा है " प्राकृतेति । सकलजगज्जन्तुनां व्याकरणादिभिरना हितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः । तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । ........ प्राक्पूर्वं कृतं प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात्संस्कारकरणाच्च समासादित विशेषं सत्संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादि व्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात्संस्कृतमुच्यते । " अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों का व्याकरणादि संस्कार से रहित सहज वचन व्यापार प्रकृति है और उससे होने वाली अथवा वही प्राकृत है । प्राकृत शब्द दो पदों से बना है - प्राक् + कृत । जिसका अर्थ है पहले किया गया । बालकों और महिलाओं के लिए यह सहज है तथा समस्त भाषाओं का मूल ( कारणभूत ) है | यह प्राकृत, मेघनिर्गत जल की भाँति पहले एक रूप है, पुनः वही प्राकृत देश अथवा क्षेत्रविशेष और संस्कार विशेष के कारण भेद को प्राप्त करती हुई संस्कृत आदि उत्तरभेदों को प्राप्त होती है । इसीलिए शास्त्रकार रुद्रट ने पहले प्राकृत का निर्देश किया है और तत्पश्चात् संस्कृत आदि का । पाणिनी आदि व्याकरणों के नियमानुसार संस्कार किये जाने के कारण वही प्राकृत संस्कृत कहलाती है । उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो प्रतीत होता है कि बोलचाल के रूप में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतें ही भारतीय आर्यभाषाओं के विकास के मूल मे कारण हैं । जो प्राकृतें संस्कृत भाषा की तरह प्राकृत व्याकरण के नियमों में बद्ध हो गईं, वे सीमा में बद्ध जलाशय की तरह स्थिर हो गईं और उनका विकास अवरुद्ध हो गया, किन्तु बोलचाल की प्राकृतें उन्मुक्त भाव से अपनी स्वतंत्र धारा में प्रवाहित होती रहीं; क्योंकि कोई भी व्यक्ति बोलचाल की ८. प्राकृत संस्कृत - मागध-पिशाचभाषाश्च सूरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥ --काव्यालंकार (रुद्रट), श्री नमिसाधुकृत संस्कृत टीका सहित, प्रका० - मोतीलाल बनारसीदास, बंगलों रोड, जवाहरनगर, दिल्ली-७, संस्करण १९८३, २/१२, पृष्ठ १३ । ९. बही, २ / २, पृष्ठ १३ । परिसंवाद -४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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