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________________ प्राकृत भाषा : एक अविच्छिन्न धारा प्रयत्न किये, जिससे वैदिक भाषा आज भी ( किञ्चित् परिवर्तन के साथ ) अपने मूल रूप में सुरक्षित है। इस वैदिक भाषा के समानान्तर एक जो अन्य भाषा विकसित हुई थी, वह है प्राकृत भाषा। यतः दोनों भाषाओं की जननी एक अन्य पूर्व प्रचलित जनबोली है, अतः उस जनबोली के कुछ शब्द दोनों भाषाओं में आज भी समान रूप से देखे जा सकते हैं। डॉ. रिचर्ड पिशल ने ऐसे अनेक शब्दों का उल्लेख किया है और अन्त में लिखा है कि-- "प्राकृत का मूल संस्कृत को बताना सम्भव नहीं है और भ्रमपूर्ण है।'' यही कारण है कि प्राकृत भाषा लौकिक संस्कृत की अपेक्षा वैदिक संस्कृत के अधिक निकट है। वैदिक संस्कृत और प्राकृत के शब्दों एवं धातुओं में द्विवचन का अभाव उक्त भाषाओं की समानता की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इस प्रसंग में डॉ० पिशल का यह कथन भी मननीय है कि -"प्राकृत भाषा की जड़े जनता की बोलियों के भीतर जमी हुई हैं और इनके मुख्य तत्त्व आदिकाल में जीती-जागती और बोली जाने वाली भाषा से लिये गये हैं; किन्तु बोलचाल की वे भाषाएँ, जो बाद को साहित्यिक भाषाओं के पद पर चढ़ गईं, संस्कृत की भांति ही ठोको-पीटी गईं, ताकि उनका एक सुगठित रूप बन जाय ।"६ इस प्रकार की जो परिष्कृत प्राकृत अथवा साहित्यिक भाषा बन गई, उसका प्रवाह रुक गया, किन्तु बोलचाल की प्राकृत का विकास अवरुद्ध न हो सका। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में बोले जाने के कारण इस भाषा ने अनेक क्षेत्रीय नाम भो धारण किये। भरतमुनि ने क्षेत्रों के आधार पर प्राकृत के सात भेदों का उल्लेख किया है मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सौरसेनी, अर्धमागधी, बालीका, और दाक्षिणात्या ।' विविध प्राकृतों के ये नाम भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में बोले जाने का स्पष्ट संकेत करते हैं। इन विविध प्राकृतों का विकास भारतीय आर्य भाषाओं के विकास का इतिहास है। महाकवि रुद्रटकृत काव्यालंकार की टीका ५. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, रिचर्ड पिशल, अनुवादक---डॉ० हेमचन्द्र जोशी, बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद्, पटना-३, १९५८, पैरा ६, पृष्ठ ८-९ । ६. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा ९, पृष्ठ १४ । ७. मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । बालीका दाक्षिणात्या च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः ॥ -नाट्यशास्त्रम् ( काव्यमाला ४२ ), सम्पा०-पण्डित केदारनाथ साहित्यभूषण, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, पुनर्मुद्रण १९८३, १७/४८ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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