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________________ जैनदर्शन में कर्मवाद और आधुनिक विज्ञान १९३ स्वचालित दोलित्र (self oscilleted oscillator) की भाँति व्यवहार कर नयी-नयी तरंगों को हमेशा खींचता रहता है । इसे जैन दर्शन में आस्रव कहा है । ये पुदगल परमाणु आत्म-प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध ही स्थापित करते हैं न कि वे दोनों एक दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं। ऐसे सम्बन्ध के बावजूद जीव, जीव रहता है और पुद्गल के परमाणु अपने परमाणुओं के रूप में ही। दोनों अपने मौलिक गुणों (Fundamentel properties) को एक समय के लिए भी नहीं छोड़ते । जैन दर्शन ने इस एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध को ही बन्ध कहा है। __ यदि आत्मा के प्रदेशों में परमाणुओं की कम्पन-प्रक्रिया ढीली पड़ने लगे, तो बाहर से उसी अनुपात में कार्मण परमाणु कम आयेंगे अर्थात् आकर्षण-क्रिया हीन होगी, अर्थात् संवर होगा। जब नई तरंगों के माध्यम से पुद्गल परमाणुओं का आना बंद हो जाता है तो पहले से बैठे हुए कार्मण परमाणु damted oscillation मंदित दौलित होकर निकलते रहेगें अर्थात् प्रतिक्षण निर्जरा होगी, और एक समय ऐसा आएगा जब प्राप्तक का दौलित्र oscillator कार्य करना बंद कर देगा। निर्विकल्पता की उस स्थिति में योगों की प्रवृत्ति एकदम बंद हो जायगी और संचित शेष न रहने पर फिर प्रदेशों की कम्पन क्रिया का प्रश्न ही नहीं उठेगा, अर्थात कर्मों की निर्जरा हो जायगी । सम्पूर्ण कर्मों की निर्जीर्णावस्था ही मोक्ष कहलाती है। उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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