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________________ १९२ जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन कर्मों का उदय होता जाता है त्यों-त्यों कर्म आत्मा से अलग होते जाते हैं। इस प्रक्रिया का नाम निर्जरा है । जब आत्मा से समस्त कर्म अलग हो जाते हैं, तब उसकी जो अवस्था होती है उसे मोक्ष कहते हैं। वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर कर्म सिद्धान्त का स्पष्टीकरण पुद्गल द्रव्य को २३ वर्गणाओं ( classification ) में रखा जाता है। इन वर्गणाओं में से कार्मण वर्गणा भी है जिसका अर्थ ऐसे पुद्गल परमाणुओं से हैं जो जीव द्रव्य के परिणमन के अनुसार ( कभी शरीर, कभी मन, कभी वचन और कभी श्वासोच्छवास के रूप में ) अपना स्वयं का परिणमन करते हुए जीव द्रव्य का उपकार करते हैं । इन कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल परमाणुओं का जीव द्रव्य के साथ संयोग होने की प्रक्रिया वैज्ञानिक आधार से निम्न रूप में समझी जा सकती है : यह सम्पूर्ण लोक इन कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल परमाणुओं से ठीक उसी प्रकार भरा है जिस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विद्युत चुम्बकीय तरंगे ( electro magnetic waves ) । ये परमाणु बहुत ही सूक्ष्मतम होने के कारण तरंग रूप में गमन करते हैं। यदि तरंग लम्बाई () तथा आवृत्ति (n) तो c = nx c=प्रकाश का वेग । ___ अब एक खास आवृत्ति की विद्युत चुम्बकीय तरंगों को एक प्राप्तक ( receiver ) द्वारा पकड़ने के लिए उसमें एक ऐसे oscillator दौलित्र का उपयोग किया जाता है कि यह उसी आवृत्ति पर कार्य कर रहा हो । इस विद्युतीय साम्यावस्था (Electrical resonance) के सिद्धान्त से वे आकाश में व्याप्त तरंगे प्राप्तक द्वारा आसानी से ग्रहण कर ली जाती हैं। ठीक यही घटना आत्मा में कार्मण स्कन्धों के आकर्षित होने में होती है। विचारों या भावों के अनुसार मन, वाणी या शारीरिक क्रियाओं द्वारा आत्मा के प्रदेशों में कम्पन उत्पन्न होते हैं। इन कम्पनों की आवृत्ति कषायों की ऋजुता या घनी संक्लेशता के अनुसार होती है । शुभ या अशुभ परिणामों से विभिन्न तरंग लम्बाइयों की तरंगे आत्मा के प्रदेशों से उत्पन्न होती रहती हैं, और इस प्रकार की कम्पन क्रिया से एक दोलित्र ( oscillator ) की तरह मान सकते हैं, जो लोकाकाश में उपस्थित उन्हीं तरंग लम्बाई के लिए साम्य ( resonance ) समझा जा सकता है। ऐसी स्थिति में भाव कर्मों के माध्यम से ठीक उसी प्रकार की तरंगे आत्मा के प्रदेशों से एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित कर लेती हैं, और आत्मा अपने स्वभाव गुण के कारण विकृत कर नयी-नयी तरंगे पुनः आत्मा में उत्पन्न करती है। इस तरह यह परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014026
Book TitleJain Vidya evam Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1987
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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